आलेख

‘गंगा में स्नान कुछ प्रतिज्ञा भी या यूं ही’मनोज जायसवाल संपादक सशक्त हस्ताक्षर छ.ग.

कितने लोग होंगे जो निश्चित रूप से गंगा में स्नान करते हुए यह प्रतिज्ञा लेते होंगे कि माता आज से मैं अपने शरीर के साथ मन,वचन और कर्म को भी गंगा जल की तरह निर्मल रखूंगा। जीवन पथ पर मैं किसी की आत्मा को नहीं दुखाऊंगा।

कितने लोग ऐसे हैं कि जीवन में तमाम पाप करते हुए गंगा स्नान कर इतने बेफिक्र में होते हैं कि हमने गंगा स्नान कर लिया है और हमारे सारे पाप धुल गए। बेफिक्री इतना कि वे उसी रोजमर्रा में फिर पाप के भागीदार बन रहे होते हैं।

 

क्योंकि उन्होंने तो ऐसी कोई प्रतिज्ञा नहीं की। जैसा लोगों को देखा गंगा स्नान करते सो वैसा इन्होंने भी कर लिया। गंगाजी से वापस अपने रूटीन जीवनचर्या में आकर ठीक वैसा ही सलूक जैसा कि किया करते थे चालू कर देते हैं। स्वयं में गहन विचार की क्षमता विकसित की होती तो विचार करते।

 

यह तो इनके लिए मजाक बन गया है। गंभीरता अपने में होना चाहिए। ना कि गंगा में वो साधू जो मंत्र पढ़ते बात बात में गंगा पर पीक करते पैसा गंगा जी को अर्पित करने के नाम नाममात्र टच कराते दुखों से जुझते परिजनों से लेकर अपनी झोली भरते देखे जाते हैं,तो इनके पीछे पड़ा कोई अन्य आदमी अपने हित की खातिर अच्छे दुकान में,सस्ते में मिलने वाले भोजन के नाम रेस्टारेंट में ले जाकर ग्राहक के नाम उन प्रतिष्ठानों के मालिक से दलाली के पैसे लेते हैं।

 

इन्हें भी पता है कि वो श्रद्वा के नाम लुटा रहा है,लेकिन करें क्या? कभी-कभी तो सब कुछ जानकर भी अनजाना पड़ता है। तमाम बातों पर ध्यान न देकर ध्यान खुद पर देना है कि गंगा जी में स्नान कर अपनी कुछ बुराईयों को छोड़ने की प्रतिज्ञा भी है या यूं ही कही सुने जाने वाली बातों के मुताबिक पाप धोने के नाम गंगा स्नान कर लिए।

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