कविता

”मैं” श्रीमती रानी शर्मा समाजसेवी कांकेर छत्तीसगढ़

”मैं”
मैं मुझको मैं में ढूंढा करती हूँ।
कौन हूँ?क्या हूँ?
खुद से पूछा करती हूँ।
बिटिया हुई, सबने प्यार किया।
जन्म लेते ही क्यों?
बिटिया पराई कहलाई।
सदा ही माँ-बाबूजी की परछाई रही।
भाइयों की बहना पहचान हुई।
सब पलकों में छिपाकर रखते थे।
हथेलियों की छत्रछाया में पलती रही।
स्वच्छंद विचरण करती थी।
पर, पावों में पायल की,
रूनझुन बेड़ियाँ थी।
सावन के झूले ऊँचे-ऊँचे पींगे भरते थे।
पर,मेरी उड़ानों के संग-संग
मेरी पहचान पराई हुई।
इक दिन संस्कारों की ओढ़ चुनरिया।
कर सोलह श्रृंगार बनी सजनिया।
सारे सपनों को पलकों में सजाये।
बाबुल की देहरी पार कर “पराई” हुई।
अभी तक थीं, बेटी,बहना,सखी सहेली।
नए रिश्तों की सौगात मिली।
अर्द्धांगिनी, कुलवधू, भाभी,चाची,मामी बनी।
भूल गई मैं कौन हूँ?क्या हूँ?
नन्हीं सी जान ने नव-जीवन फूँका।
हौले से कहा मेरी माँ हो।
मुझे मेरी नई पहचान मिली।
धरा अंबर गुंजित हो,मैं माँ कहलाई।
बच्चों के संग प्रेम,ममत्व,वात्सल्य से।
सुख-दुख संग
जीवन चक्र चलता रहा।
गात सब शिथिल पड़ने लगे।
उम्र का जोड़-घटाना चलता रहा।
बच्चों के ब्याह से,
फिर नए रिश्ते बने।
मैं सासू माँ,नानी-दादी कहलाई।
सब कुछ क्योँ बदलने लगा।
मेरे अपनों से दूरियाँ बनने लगी।
जिनके लिए मैं सारी दुनिया थी।
उन्हें ही बोझ लगने लगी।
फिर से–
मैं मुझको मैं में ढूंढने लगी।
कौन हूँ?क्या हूँ?
खुद से पूछने लगी।
अंदर से एक आवाज आई।
“ईश्वर की अनुपम कृति हो।
त्याग तपस्या की मूरत हो।
औरों को खुशियाँ दे,खुश रहती हो।”

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