आलेख

भाव खाने का नहीं भाव रखने का स्वभाव हो…

(मनोज जायसवाल)
जीवनचर्या ऐसी हो गयी है कि कई लोगों में न चाहते हुए भी उनमें भाव प्रवेश कर गया है। जिसके चलते उनका स्वभाव ही भाव खाने का हो गया है। जबकि भाव रखने स्वभाव होना चाहिए। अहं रूपी भाव प्रवेश करते देर नहीं लगती। अच्छी शिक्षाप्रद भाव को प्रसार करने से आपका भाव का स्वभाव नहीं हो जाता। इसके लिए दृढ़ प्रतिज्ञ और अपने को ढालना जरूरी है।

भाव रूपी स्वभाव होता तो आज हर कोई रचनाएं न सृजित कर लेता। इसलिए क्यों यदि कोई लिखता है,चाहे वह जिस रूप में लेखन करे पूर्व के अच्छे जन्मों का प्रतिफल और उनके घर के संस्कार जिस संस्कार में वह प्रतिभा पला बढ़ा यह परिचायक होता है।

 

 

लेकिन यह भी नहीं कि वो जब कभी भी अपनी कलम चला ले और रचनाएं सृजित हो जाए। दुनिया के सभी प्राणियों में चर अचर सबके प्रति संवेदना और समझदारी रखे। हृदय सख्त न हो ऐसा ही जिनमें भाव भरा है वही लिख पाता है। जिसके स्वभाव में भाव नहीं है,वो पत्थर की तरह ही है। लेकिन है समाज में इस सरीखे से मानव जिसके चलते ही कई घृणित घटनाएं होती रहती है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की भी ये पंक्तियां है,कहा है,जिन पंक्तियों पर बताया जाता है कि यह कवि पं. गया प्रसाद शुक्ल सनेही की है। जो भी हो पर निश्चित ही मानव में विद्वमान बातों को लिखी गयी है। जिसे पूरे उत्साह उल्लास के साथ गाया जाता है।
जो भरा नहीं है भावों से, जिसमें बहती रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं पत्थर है,जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।

 

 

निश्चित ही इंसान है तो हमारे स्वभाव में भाव हो। कथा वाचक वाचिकाएं भी इस बात पर जोर देते हैं कि तुम्हारे अंदर का स्वभाव भाव प्रधान हो। समाज में सबसे पहले आपके भाव की स्वभाव को परखी जाती है,जिसकी कीमत न इस जीवन अपितु आपके जाने के बाद भी याद की जाती है।

 

 

 

 

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