‘दामाद’ परिवार का एक अहम जिम्मेदार सदस्य के रूप में जाना जाने वाला पुराना स्वर्णिम अतीत से रिश्ता रहा है।लेकिन आज उपेक्षित रिश्ता बनते जा रहा है।
लेकिन अब संभवतया दामाद को वह सम्मान नहीं मिलता जो पहले मिला करता था। पहले तो दामाद होने का अर्थ ही किसी परिवार के लिए वो मुखिया का होना होता था,जिससे पूछ कर ही ससुराल के कार्य होते थे।
लेकिन शायद आज दामाद के लिए वह सम्मान कई परिवारों में काफूर हो चुका है। स्थिति तो इतना है कि अतीत में कोई दमाद अपने ससुराल चले जाता था तो उसमें ससुर एवं परिवार अपने बेटी का प्रतिरूप देखते संतुष्ट हो जाते थे, लेकिन आज तो कोई दामाद बगैर अपनी पत्नी के ससुराल जाने की स्थिति में नहीं होता।
दामाद कैसा है इसकी कोई परवाह नहीं करता लेकिन उनकी बेटी कैसी है सभी के पास यह प्रश्न होता है। किसी दामाद के लिए ससुराल जाने पर उनके मित्र टंच मारते जाओ गंगा स्नान कर आओ। इस टंच का अर्थ यह था कि दामाद को हर क्षेत्र में ससुराल से सहयोग मिलता है,सम्मान अलग। लेकिन समाज में अन्य रिश्तों से ज्यादा आज दामाद के रिश्तों को दरकिनार किया जा रहा है।
छत्तीसगढ़ के परिपेक्ष्य में देखा जाय तो पुराने अतीत आम लोक जीवन में किसी किसान के यहां दामाद खेती किसानी के काम के वक्त बुला लिया जाता या स्वयं अपनी जिम्मेदारी से पत्नी सहित ससुराल आकर खेत खलिहानी का कार्य किया करते थे। खेत जुताई, खेत से खलिहान तक धान भारा ढुलाई, मिंजाई बिक्री तक। जिसका उल्लेख कला जगत में कई गीतों में भी उल्लेख किया गया है। आज के परिपेक्ष्य में तो कई परिवारों में दामादों का ससुराल से छत्तीस के आंकड़े जैसे रिश्ते दिखायी देते हैं। कुल मिलाकर ससुराल के लिए दामाद एक रिश्ता मात्र है। जिसकी उनके परिवार में कोई जिम्मेदारी,जवाबदारी नही है।
अधिकतर त्यौहारों में दामाद से कोई सरोकार नहीं है। कुछ परंपराओं पर है भी तो ससुराल पक्ष वो तरजीह नहीं देते। आने वाला तीज ही देख लीजिए जहां समाज के अंतिम सिरे में भी जाकर देखें तो पत्नी तीजा जाएगी। उपहार स्वरूप उन्हें साड़ी एवं अन्य सामान देकर विदा किया जाता है,लेकिन दामाद का कोई ख्याल नहीं रखा जाता। कुछ ही होंगे जो अपने दामाद को कभी भेंट स्वरूप कपड़े वगैरह दें।
किसी कारणवश बेटी यदि तीजा नहीं जा पायी तो कोई बात नहीं साल के कई अवसरों पर उनकी भेंट उन्हें प्रदाय की जाती है,लेकिन दामाद को पूछने वाला कोई नही है। बहूत कम मिलेंगे जो अपने दामादों को भेंट दे। परिवार में दामाद की अपनी सास ही है जो कुछ स्नेह रखती है,वरन दूसरा नहीं।
दुखों पर काम आते हैं दामाद
कड़वा सच यह है कि जिस दामाद को ससुराल पक्ष उपेक्षित करता है। अतीत के जैसा जिम्मेदार इंसान नहीं मानता। लेकिन इससे ज्यादा कड़वा सच तो यह है कि वही ससुराल वाले अपने यहां दुख आने पर दामाद को याद करते हैं।
मजबूरी है,भेजना
चली आ रही परंपरा मुताबिक दामादों के लिए उनकी पत्नी को तीजा भेजना मजबूरी भी है। नहीं भेजे तो इसे लड़की के मायके पक्ष वाले दामाद पर तरह-तरह के आरोप प्रत्यारोप लगाने से नहीं चुकते। दामाद की मजबूरी समझने वाला कोई नहीं है। तीजा पर पत्नी जाएगी तो कहां खाना खायेगा। कैसे करेगा इससे किसी को सरोकार नहंी है। हां पत्नी के आने पर कई शब्द जरूर सुनने मिलेगा कि दो दिन उनके नहीं रहने पर घर को गंदगी करके रखा है एक झाड़ू तक नहीं लगा सके।