”जाने कौन सी मुलाकात अंतिम रहे हों ”
किसी इंसान के असमय चले जाने के बाद निश्चित रूप से ऐसा लगता है कि पिछली दफा मुलाकात की थी,काश भौतिक रूप से और मुलाकात हुई होती तो कुछ और बात किए होते। खासकर मुलाकात जब लेखन जगत से हो तो यह और भी मायने रखता है। लेखन जगत से कोई भी साहित्यकार जब एक दूसरे से मुखातिब होते हैं,तब लेखन के कई विषयाें पर बातचीत होती है। कई दफा इन्हीं बातों में भी रचनाओं का जन्म होता है।
कभी भी दो रचनाकारों के बीत मुलाकात घंटो साहित्य चर्चा में बीत जाती है। आज के सोशल मीडिया फोन से इन मुलाकातों में भौतिक रूप से वह संतुष्टि संभव नहीं होता बावजूद इसके जब भी किसी दो साहित्यकार के बीच चर्चा बातों का सिलसिला कुछ लंबा खींच ही जाता है।
कभी अतीत के छायाचित्र तो अलंकार ग्रहण आयोजन तो कभी किसी संस्मरण विषयक बातें। दो साहित्यकारों के बीच किसी अखबारी बैनर की चर्चा न हो ऐसा नहीं हो सकता। कई समाचार पत्र साहित्यकारों के लिए कई स्तंभ चलाते हैं,जिसमें साहित्यकारों की रचनाएं प्रकाशित होती है। संपादकीय के तारतम्य भी चर्चा मुख्य विषय होता है। अंतिम चर्चा पारिवारिक बातों का होता है।
साहित्यकारों के बीच जितनी सार्थक विषयों पर चर्चा होती है,उतनी शायद स्थानीय आंचलित पत्रकारों के बीच नहीं होता। अमूमन इनके चर्चाओं में तो नारद चर्चाएं ही खास होती है। किसकी क्या खामियां है,कैसे प्रमाणिकता जुटानी है और कैसे उन्हें हड़काना भी है और छापना भी। चाय की चुस्कियों के बीच संबध तो स्नेहिल दिखायी देता है,लेकिन दूसरी ओर बड़ छोटे भाव को लेकर ईर्ष्या,द्वेश,वैमनस्यता भी बखुबी निभाये जाते हैं। आज की पत्रकारिता बहुत फुंक फुंक कर चलने वाली बात हो गई है,कि कब आपके अपने ही मौका देखकर चाैका न मार दें।क्याेंकि व्यक्तिगत हित में कई लोगों की भावना इतनी कुंठित,कुत्सित होती है कि समय पडने पर वह संबंधों तक की परवाह नहीं करता। भले ही लोगों की नजर में वह गिर जाए जो बाद में नहीं उठ सकता।
यह कुछ लोगों की बात है। जो निश्चित रूप से लेखन का मर्म समझते हैं,पत्रकारिता का स्तर बना कर रखे हैं,उनके लिए यह बात कोई मायने नहीं रखता कि कौन क्या कर रहा है। उन्हें तो बस विषयों पर अपनी प्रामाणिकता से मतलब होता है। अपना स्वाभिमान गिराते उन शब्दों में ब्लेकमेलिंग का व्यवहार उन्हें नहीं भाता जैसा कि कई कम पढ़े लिखे लोग इन बातों पर तरजीह देते अपने को बुद्विमान और दूसरे को मुर्ख समझने की गलती कर रहे होते हैं,जो
यह समझते हैं कि उनका इशारा,उनकी ब्लेकमेलिंग व्यवहार दूसरा नहीं समझेगा।
किसी बातों को समझने के लिए किसी का पत्रकार,साहित्यकार होना जरूरी नहीं है यह तो लोगों की विद्वता की बात होती है। किसी भी प्रकार की चुगली और ब्लेकमेलिंग जैसा व्यवहार खुद को एक दिन किनारे में ही खडा करता है,इन बातों को साम्य लेते अपनी विद्वता के अनुरूप चलना हितकर है। क्योंकि चालाकी कर तो अनपढ़ भी अर्थ प्राप्ति कर लेता है,लेकिन उनकी चालाकी कईयों दफा खुद को नहीं बचा पाती है और जिंदगी कोर्ट कचहरी,जेल के नाम हो जाती है।
साहित्य लाईन में विद्वता खासा महत्व रखता है। पारिवारिक संस्कार किस प्रकार के परिवार से जुडाव है यह हमेशा आंतरिक रूप से महत्व भी रखता है। लेखन एक बडी साधना है, लेखन के गुर नहीं है आपने आत्मसात नहीं किया है तो साहित्य चर्चा में आप एक कदम नहीं टिक सकते। कोई किसी खबर लिखकर बेवजह लीड करार देते लेखन की जरूर मिथ्या वाहवाही लूट सकता है,पर साहित्य चर्चा में बिठा दिया जाय तो उनका मिनटों टिक पाना संभव नहीं है,यहीं परीक्षा भी हो जाती है कि आपकी भावनाएं कैसी है।
अमूमन तंत्र में किसी व्यवस्था पर कलम की शक्ति के तौर विरोध में लिखना, व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाना बहुत सरल है,लेकिन आपमें यदि विद्वता है तो उसके निराकरण और सुचारू रखने का निर्णय देना भी तो खुद की जिम्मेदारी है। सो दूसरे पक्ष पर गहन विचार कर भी किसी व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाया जाना चाहिए। क्योंकि व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह यदि लोग देख रहे हैं तो आपके अपने विचार से क्या होना चाहिए यह निर्णय भी लोग देखना चाहते हैं।
बातों पर आते इस काल में न जाने कितने ही साहित्य प्रतिभाओं की भी असमय मौत हो गई है। सोशल पटल पर एक साहित्यकार के दूसरे से बात किये जाने या चर्चा किए जाने की बातें अधुरी हो गई जो बताया जा रहा है,निश्चित रूप से यदि आपके भौतिक रूप से मुखातिब होते रहें। लेखन विनम्रता लाती है,घमंड नहीं। फोन भी एक दूसरे से हालचाल जानने का सशक्त माध्यम है। अल्प जिंदगी में कभी आपको गम न रहे कि हम उनसे काफी समय से बात नहीं की और अंतिम संस्कार में भी नहीं जा सके।