आलेख

‘मुक्तिबोध’ का साहित्य-युगबोध और प्रवृत्ति डॉ रामायण प्रसाद टण्डन वरिष्ठ साहित्यकार कांकेर छ.ग.

साहित्यकार परिचय- डॉ. रामायण प्रसाद टण्डन

जन्म तिथि-09 दिसंबर 1965 नवापारा जिला-बिलासपुर (म0प्र0) वर्तमान जिला-कोरबा (छ.ग.)

शिक्षा-एम.ए.एम.फिल.पी-एच.डी.(हिन्दी)

माता/पिता –स्व. श्री बाबूलाल टण्डन-श्रीमती सुहावन टण्डन

प्रकाशन –  हिन्दी साहित्य को समर्पित डॉ.रामायण प्रसाद टण्डन जी भारत के छत्तीसगढ़ राज्य में हिन्दी के स्तंभ कहे जाते हैं। हिन्दी की जितनी सेवा उन्होंने शिक्षक के रूप में की उतनी ही सेवा एक लेखक, कवि और एक शोधकर्ता के रूप में भी उनकी लिखी पुस्तकों में-1. संत गुरू घासीदास की सतवाणी 2. भारतीय समाज में अंधविश्वास और नारी उत्पीड़न 3. समकालीन उपन्यासों में व्यक्त नारी यातना 4. समता की चाह: नारी और दलित साहित्य 5. दलित साहित्य समकालीन विमर्श 6. कथा-रस 7. दलित साहित्य समकालीन विमर्श का समीक्षात्मक विवेचन 8. हिन्दी साहित्य के इतिहास का अनुसंधान परक अध्ययन 9. भारतभूमि में सतनाम आंदोलन की प्रासंगिकता: तब भी और अब भी (सतक्रांति के पुरोधा गुरू घासीदास जी एवं गुरू बालकदास जी) 10. भारतीय साहित्य: एक शोधात्मक अध्ययन 11. राजा गुरू बालकदास जी (खण्ड काव्य) प्रमुख हैं। 12. सहोद्रा माता (खण्ड काव्य) और 13. गुरू अमरदास (खण्ड काव्य) प्रकाशनाधीन हैं। इसके अलावा देश के उच्च स्तरीय प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी सेमिनार में अब तक कुल 257 शोधात्मक लेख, आलेख, समीक्षा, चिंतन, विविधा तथा 60 से भी अधिक शोध पत्र प्रकाशित हैं। आप महाविद्यालय वार्षिक पत्रिका ‘‘उन्मेष’’ के संपादक एवं ‘‘सतनाम संदेश’’ मासिक पत्रिका के सह-संपादक भी हैं। मथुरा  उत्तर  प्रदेश से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘‘डिप्रेस्ड एक्सप्रेस’’ राष्ट्रीय स्तरीय पत्रिका हिन्दी मासिक के संरक्षक तथा ‘‘बहुजन संगठन बुलेटिन’’ हिन्दी मासिक पत्रिका के सह-संपादक तथा ‘‘सत्यदीप ‘आभा’ मासिक हिन्दी पत्रिका के सह-संपादक, साथ ही 10 दिसम्बर 2000 से निरंतर संगत साहित्य परिषद एवं पाठक मंच कांकेर छ.ग और अप्रैल 1996 से निरंतर जिला अध्यक्ष-पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी सृजनपीठ कांकेर छ.ग. और साथ ही 27 मार्च 2008 से भारतीय दलित साहित्य अकादमी कांकेर जिला-उत्तर बस्तर कांकेर छ.ग. और अभी वर्तमान में ‘‘इंडियन सतनामी समाज ऑर्गनाईजेशन’’ (अधिकारी/कर्मचारी प्रकोष्ठ) के प्रदेश उपाध्यक्ष.के रूप में निरंतर कार्यरत भी हैं।

पुरस्कार/सम्मान1-American biographical Institute for prestigious fite *Man of the year award 2004*research board of advisors (member since 2005 certificate received)

2. मानव कल्याण सेवा सम्मान 2005 भारतीय दलित साहित्य अकादमी छत्तीसगढ़ 3. बहुजन संगठक अवार्ड 2008 भारतीय दलित साहित्य अकादमी छत्तीसगढ़ 4. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी  स्मृति प्रोत्साहन पुरस्कार 2007(बख्शी जयंती समारोह में महामहिम राज्यपाल श्री ई.एस.एल. नरसिंम्हन जी के कर कमलों से सम्मानित। इनके अलावा लगभग दो दर्जन से भी अधिक संस्थाओं द्वारा आप सम्मानित हो चुके हैं।) उल्लेखनीय बातें यह है कि आप विदेश यात्रा भी कर चुके हैं जिसमें 11वां विश्व हिन्दी सम्मेलन मॉरीसस 16 से 18 अगस्त 2018 को बस्तर संभाग के छत्तीसगढ़ भारत की ओर से प्रतिनिधित्व करते हुए तीन दिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेकर प्रशस्ति-पत्र प्रतीक चिन्ह आदि से सम्मानित हुए हैं।

सम्प्रति – प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष, शोध-निर्देशक (हिन्दी) शासकीय इन्दरू केंवट कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय कांकेर, जिला-  कांकेर (छत्तीसगढ़) में अध्यापनरत हैं। तथा वर्तमान में शहीद महेन्द्र कर्मा विश्वविद्यालय बस्तर जगदलपुर छत्तीसगढ़ की ओर से हिन्दी अध्ययन मण्डल के ‘‘अध्यक्ष’’ के रूप में मनोनित होकर निरंतर कार्यरत भी हैं।

सम्पर्क  –मकान नं.90, आदर्श नगर कांकेर, जिला-  कांकेर, छत्तीसगढ़ पिन-494-334 चलभाष-9424289312/8319332002

मुक्तिबोध का साहित्य-युगबोध और प्रवृत्ति

(दो दिवसीय राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी 12-13 नवम्बर 2022-शोध आलेख)

गजानन माधव मुक्तिबोध का जीवन न जाने कितने अन्तर्विरोधों, घटनाओं-प्रघटनाओं से परिपपूर्ण है।यदि उन्हें क्रमागत रूप से रखा जाय तो मोटा पोथा तैयार हो सकता है। किन्तु संक्षिप्त परिचय के लिए उनके जीवन की कुछ मुख्य घटनाएं, परिवेश-पृष्ठभूमि जान लेना ही आवश्यक है। प्रसंगत यहां इतना कहना आवश्यक होगा कि मुक्तिबोध ने अपने स्वभाव के विरूद्ध 1945 में बंगलोर में जाकर वायुसेना में भर्ती होने का प्रयत्न भी किया।

 

इससे पूर्व उन्होंने भारत-सोवियत-मैत्री-संघ का पहला अधिवेशन, जो बम्बई में मई, 1944 में हुआ था, देखा और इसी वर्ष के अंत में महापण्डित राहुल सांस्कृत्यायन की अध्यक्षता में इन्दौर में फासिस्ट-विरोधी लेखक-संघ का आयोजन किया था।

 

मुक्तिबोध का जीवन वस्तुत साहित्यकार का जीवन रहा, जिसमें संघर्ष और कटु अनुभव निरंतर होते रहते हैं। किन्तु उसमें संवेदनशीलता बनी रहती है। मुक्तिबोध के संस्मरण प्रस्तुत करते समय भगवन्तशरण जौहरी ने एक स्थल पर ‘‘निराला‘‘ की निम्न काव्य पंक्तियां सटीकता से प्रस्तुत की है-

 

‘‘जाना तो अर्थागमोपाय/पर रहा सदा संकुचित काय/लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर/हारता रहा मैं स्वार्थ-समर/दुख ही जीवन की कथा रही/क्या कहूं आज, जो नहीं कही/‘‘
मुक्तिबोध के साहित्यकार रूप को मान्यता भी बाद में मिली-विशेषता मृत्यु के पश्चात्, इसे हिन्दी साहित्यकार का दुर्भाग्य‘ की ही संज्ञा दी जा सकती है।

 

मुक्तिबोध मूलत कवि हैं। सन् 1943 में ‘‘तारसप्तक‘‘ में अज्ञेय ने उन्हें सर्वप्रथम स्थान दिया था। ‘तरसप्तक‘ के मुक्तिबोध ‘राहों के अन्वेषी‘ थे जिन्हें अध्कि वैज्ञानिक, अधिक मूर्त और अधिक दृष्टिकोण…….प्राप्त हुआ था। उनकी ये रचनाएं प्रयोगकालीन थीं, इसीलिए अज्ञेय ने अन्य सप्तकीय कवियों के साथ ‘राहों के अन्वेषी‘ कहा थां इन कविताओं में एक आशा झलकती है जो उन्हें आस्थावान प्रयोग की शक्ति प्रदान करती है। यही कारण है कि इन कविताओं का कवि कुछ मूर्त हां सका है।

 

स्वतंत्र काव्य संग्रह के रूप में केवल एक पुस्तक प्रकाशित हुई। वह भी सम्पादित हैं। एक अन्य संग्रह डॉ विमल द्वारा सम्पाद्य है। विवेच्य संकलन सन् 1964 में प्रकाशित हुआ था। ‘तारसप्तक‘ दूसरा संस्करण के आत्म वक्तव्य की कडी में इन कविताओं को रखकर ही इस संग्रह का सही मूल्यांकन हो सकता था किन्तु मरणोपरांत प्रकाशन के कारण सहित्य जगत की कोमल भावनाएं इस संग्रह के साथ जुड. गई। कुछ हिन्दी जगत के आत्मग्लानि के भाव भी इसमें संलिप्त रहे, क्योंकि जीवितावस्था में मुक्तिबोध को वांछित स्थान प्राप्त न हो सका और वे अविरल संघर्ष करते रहे।

 

‘चांद का मुंह टेढ़ा है‘ आलोच्य संग्रह की कविताओं में कवि का बहुमुखी स्वर उभरा है। इसमें दहशत, खौफ, त्रास, घृणा, स्नेह, अकेलापन, साथीपन, टूटना, जुड.ना सभी कुछ है। इन्ही स्वरों के कारण मुक्तिबोध के कवि को अनेक संज्ञाएं प्रदान की गई है। इन्हे सरल भी कहा गया है, जटिल भी, सपाट भी कहा गया है और घना भी, तरल भी कहा गया है और ठोस भी। वस्तुत इनके कवि को अलग अलग दृष्टियों से देखने-परखने का प्रयत्न किया गया है। ये धरातल रहस्यात्मकता से लेकर आत्म्-निर्वासन तक प्रसारित है। इन धरातलाे के बीच में भी संगति-विरोध, बिम्ब-प्रतीक-विधान, फैटेसी, आत्म-संशोधन आदि के स्तर हैं। वस्तुत मुक्तिबोध की कविताओं में ये सब धरातल प्राप्त होते हैं।

 

आत्म संशोधन इनकी एक प्रमुख प्रक्रिया है जो अन्य उपादानों का आधार ग्रहण करके चलती है। ‘ब्रम्हराक्षस‘ एक अपरूप् शून्य के प्रति, ‘अंधेरे में‘ चांद का मुंह टेढा  है‘ नामक कविताएं इस बात का प्रमाण है। डॉ नामवर सिंह ने तो इन कविताओं को मुक्तिबोध की ‘शहादत‘ के साथ जोडा  है।

 

मुक्तिबोध एक सशक्त यथार्थवादी कवि रहे हैं, अत उनकी काव्य भाषा उनके अपने दृष्टिकोण से प्रभावित रही है। उनकी काव्य भाषा भी उनकी विचारधारा की विशिष्टताओं की तरह मौलिक है। वस्तुत कवि को भाषाभिव्यक्ति ही महान बनाने में सहायक होती है इसलिए काव्य भाषा को सुदृढ. और विचाराभिव्यक्ति में सक्षम होना आवश्यक है। मुक्तिबोध अपने सम्पूर्ण कवि जीवन में भाषा के प्रति बडे सचेष्ट रहे हैं। उनकी प्रत्येक रचना कई बार काट-छांट के बाद ही पूरी होती। एक यथार्थ कवि होने के नाते उन्होनंे अपनी भाषा को अपनी यथार्थ अभिव्यक्ति के अनुरूप् ही प्रयुक्त किया। मुक्त्बिोध के अनुसार कलाकार भाषा का निर्माध्ण भी करता है। मुक्तिबोध की काव्य भाषा विभिन्न शब्दावलियों का मिश्रित रूप् है। जिस भाव या विचार के लिए जो भी भाषा उचित रही उसी का प्रयोग किया।

 

भावानुरूप् संवेदनानुसारी शब्दक्रम शैली की रचना कवि के लिए आसान काम नहीं है। उन्होंने अपनी काव्य भाषा में तत्सम, तद्भव, अरबी फारसी, अंग्रेजी सभी भाषाओं का प्रयोग किया गया है। मुक्तिबोध के काव्य की सबसे बड.ी विशेषता यही है कि उसमें युग की नई चेतना नये रूप में अभिव्यक्त हुई है वह भी नई काव्य में। जिसमें चेतना और भावना के विद्रोह के साथ भाषा का विद्रोह के साथ भाषा का विद्रोह भी मिलता है।

 

मुक्तिबोध का काव्य निज और वर्ग की दारूण यातना को इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि दोनों के अन्तर को पकड. पाना अत्यंत कठिन है। उसमें आत्मनाश की आशंका भी है और सहचरों की तजाश भी। यह तलाश क्रांति के संगठन की खोज है। अत यहां अकेलापन आत्म-निर्वासन और इन स्थितियों में आत्मालोचन का भाव भी है। यह दो रूपों में व्यक्त हुआ है- शुद्ध भी और बिडम्बनात्मक भी। अत यह आत्मा और वर्ग से सम्बद्ध है। ‘अंधेरे में‘ से ही दोनों के उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं-

 

‘एकदम जरूरी है…..दोस्तों को खोजूं। पाउं मै नये-नये सहचर/ सकर्मक सत्-चित-वेदना भास्कर/ और/उदरम्भरि बन अनात्म बन गए,/भूतांे की शादी में कनात से तन गए,/किसी व्यभिचारी के बन गए बिस्तर/ और/दुखों के दागों को तमगों-सा पहना/अपने ही ख्यालों में दिन-रात रहना/असंग बुद्धि व अकेले में सहना/जिन्दगी निष्क्रिय बन गई तलघर/‘‘

 

मुकित्बोध ने क्रांति की भावना को प्रतीकात्मक भाषा में व्यक्त किया है। स्वप्न चित्र में गांधी जी क्रांति शिशु को नायक को सौंप देते हैं और उसे आगे बढ.ने का संकेत देते हैं। शिशु ‘‘मैं’’ के कंधे पर आने पर सूरजमुखी पुष्प् और फिर रायफल में बदल जाता है। यहां मै की मनोदशा विचारणीय बन जाती है। स्वतंत्रता की अनुभूति उसमें गंध और क्रांति-पथ की अनगिनत कठिनाइयों का अहसास कराती है। कवि ने इस गंध और स्वतंत्रता को आह्लाद और आकाश के माध्यम से व्यक्त किया है। तभी उसके कंधे पर का शिशु रो पड.ता है-उसमें स्फोटक क्षोभ, गहरी शिकायत और भयंकर क्रोध है। ‘‘मैं’’ नहीं चाहता कि उसका रोना कोई सुन ले क्योंकि तब क्रांति बीच में ही दबा दी जाएगी।

 

क्रांति-शिशु को फैटेसी में सूरजमुखी बनाना डॉ शीतला मित्र की दृष्टि में ठीक ही ‘‘क्रांति-प्रक्रिया के एक चमकीले निडर से आह्लाद् का प्रतीक है। क्रांति शिशु को दायित्व के रूप् में सहेज लेने के प्श्चात् तज्जनित वेदना और उसके अंगी आह्लाद् का होना स्वाभाविक और मनोवैज्ञानिक यथार्थ होकर कवि संवेदना की प्रामाणिकता भी है।’’ वस्तुत यह गहराई में क्रांति की प्रक्रिया के मूल आस्वादों को प्रतीकात्मक ढंग से अभिव्यक्त करता है।

 

उपरोक्त उद्हरणों में ‘सहचर’ और ‘सकर्मक’ शब्दों की अपनी व्यंजनाएं है। उसे सहचर भी ‘सद-चितृ-वेदना भास्कर’’ चाहिए। प्रत्यक्ष वेदना को जीकर सूर्य के समान प्रज्ज्वलित! मुक्तिबोध की क्रांति के सहयोगी वही हो सकते हैं। जो जीवन की दृासदी को वास्तविक रूप में भोग रहे हों, जीवन-सत्य को खोज रहे हों। कवि ने इस अर्थ को साकार करने के लिए तत्सम शब्दावली का प्रयोग किया है। इस संबंध में एक अन्य उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता है-

 

‘‘खोजता हूं पठार……पाहाड………समुन्दर/जहां मिल सके मुझे/मेरी वह खोई/मेरी वह खोई हुई/परम अभिव्यक्ति अनिवार/ आत्मसम्भव’’/मुक्तिबोध ने अपने काव्य में संवेदनाओं को अनेक भंगिमाओं मेंप्रस्तुत किया है.,उनकी प्रतिक्रिया अनेक प्रकार की हैं। कविता की भाषा भी उसी बहुविधा की तरह बहुविध हैं-‘‘वह कभी संस्कृतनिष्ठ सामासिक पदावली की अलंकृत वीथिका से गुजरती है, कभी अंगेजी की इलेक्टिक टेन पर बैठकर जल्दी से खटाक-खटाक निकल जाती है।’’ मुक्तिबोध के काव्य भाषा प्रयोगधर्मिता भी मिलती है, जो आज तक नयी कविता में प्रयुक्त हो रही है। जैस ये सब दृढभीभूत कर्मशिलाएं हैं/जिनसे कि स्वपनों की मूर्ति बनेगी/सस्मित सुखकर/जिसकी कि किरणें/ब्रम्हाण्ड भर में नापेंगी सब कुछ/’’

 

इस स्थिति से पूर्व कवि को अनन्त अंधेरे में भटकना पडा  है, वह क्रान्ति-शिशु, जिसे प्रतीक रूप में लेकर वह चला है, जाने कहां चला गया है। किन्तु उसे विश्वास है कि वह अंधकार अवश्य छटेगा और क्राति के बिगुल रूप में उसका क्रन्दन अवश्य सुन पडेगा-
‘‘उस शिशु स्वर से अर्गला टूटती है….
आगामी कई हविष्यों के संकेत
असाधारण उसके स्वर में।’’

 

मुक्तिबोध समष्टि के कवि हैं, व्यष्टि के नहीं। वे समझ सके थे कि व्यष्टि के धरातल का संकुचित संसार समष्टि के धरातल पर नये आयाम प्रस्तुत कर सकता है और मानवीय संवेदनाओं को नया आकार दे सकता है। इसी धरातल पर पहुंचकर व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का सामाजीकरण कर सकता है और जन चेतना को नयी गति प्रदान कर सकता है। किंतु मुक्तिबोध ने इस बात को समझा कि इस धरातल को प्राप्त करने के लिए सकर्मक प्रेम की अतिशयता और गतिमयता वांछित है, जो आत्मसंभवा अभिव्यक्ति में, एक-एक चेहरा और एक-एक आत्मा का इतिहास ढूढती है। तभी वह सृष्टा का धरातल बन पाती है-यह वह भूमिका है जहां व्यक्ति को उसकी परम अभिव्यक्ति  फिर से प्राप्त हो जाती है-
‘‘परम अभिव्यक्ति/ लगातार घूमती है जग में/पता नहीं, जाने कहां, जाने कहां/वह है।’’(अंधंरे में) इसी खोज के कारण मुक्तिबोध समष्टि-सत्य के स्रष्टा, भोक्ता और नये आयामों के स्रष्टा भी है। मुक्तिबोध ने इस सबके लिए फैशन के तौर पर न तों प्राचरन-दर्श को नकारा और न ही मसीहा बनने का प्रयत्न किया। इसके विपरीत उन्होंने अभिव्यक्ति का खतरा उठाया और स्थापित करने का प्रयत्न किया कि जनता के गुणाें से ही संभव, भावी का उद्भव हो सकता है और यह एक सच्चे, ईमानदार, भविष्य-द्रष्टा की अपेक्षा रखता है।

 

मुक्तिबोध ने इस अनागत के गर्भ में झांकने का प्रयत्न किया, भले ही इसके लिए उसे प्राचीन, अतल गर्भशील बावडि.यों की त्रास-जनक स्थितियों और आत्मान्वेष्ण की पीडा से गुजरना पडा। किन्तु इन फटेंसियाें को को जीता हुआ भी कवि सहज वाग्जाल में नहीं फंसता वरन् भविष्य-द्रष्टा की अपनी भूमिका अपनी भूिमका निभाता है। वह जानता है कि इस अनगढ. भविष्य को अभी तराशना हैं, चमकाना है, आवश्यकताओं के अनुरूप् बनाना है।इस प्रकार वह अपना ब्रम्हराक्षस का सजल-उर श्ष्यि होने की कल्पना और उसके छूटे-अधूरे काम को आगे बढ.ाने के किवचार को पूरा करता है।

 

मुक्तिबोध की यह भविष्य-कल्पना भविष्य में घटित होगी, ऐसा सोचना कुछ सार्थक होगा। क्यों नहीं कवि उसी समय अंधकार को छांट देता और अपने स्वप्न की पूर्ति हुई दिखाता। वह जानता है कि उसे क्रांति की वाणी को उसके पूर्णता प्रेषणीय होने तक रोकना होगा, अन्यथा उस पर प्रतिवार हो सकता है और क्रांति-शिशु को सदा के लिए समाप्त किया जा सकता है। तभी उसका क्रांति शिशु कहां चला जाता है। कवि जानता है कि वर्तमान व्यवस्था का गरल मारक है और उसके लिए प्रज्वलनमय, आक्रामक, आक्रोशकारी, क्रांति-विस्फोट चाहिए और उसकी स्थिति अभी उत्पन्न नहीं हुई है।

 

स्पष्टता मुक्तिबोध की अंतश्चेतना गहन सामाजिक यथार्थो के व्यापक परिदृष्य को घेरे हुए हैं और उसकी दृष्टि प्रेम और सौन्दर्य के सामाजिकृत पक्ष में गहरी उतरी है। उसके मानस में उस संभवित क्रांति के प्रति सहज विश्वास है, जिसका प्रतीक वह अपने कंधे पर ढोता आ रहा है। अत मुक्तिबोध जगत् के संदर्भो में अपने स्वपनों और विचारों को सहज भाव से काव्य में अंतर देते हैं।

‘‘दिवालों की दरारें परती भरती/व सीने फटते कपडे दिल रफू करती/किन्हीं प्राणांचलों पर वह कसीदा काढ.ती/स्वयं की आत्मा के फूल-पत्ती के  नमूने/।’’
इसी संवेदना के कारण मुक्तिबोध आत्मा के स्याह गहरे अंधकारपूर्ण कोनों को भी उघाड.ने का प्रयास करते दीख पड.ते हैं। वे हर स्थान पर उपस्थित होते हैं, क्योंकि जीवन के प्रत्येक अंश से उनका सीधा संबंध जुड. जाता है, क्योंकि वे उस संघर्ष के अस्तित्व को समझते हैं, क्योंकि वे उस द्वन्द्व को जीते हैं, उससे उत्पन्न छटपटाहट को भोगते हैं, और क्योंकि उनकी दृष्टि से वह आदर्श-स्वप्न ओझल नहीं होता कभी।

 

कुल मिलाकर हम कह सकते है कि मुक्तिबोध तारसप्तक के पहले कवि थे। मनुष्य की अस्मिता, आत्मसंघर्ष और प्रखर राजनैकि चेतना से समृद्ध उनकी कविता पहली बार ‘तारसप्तक’ के माध्यम से सामने आई, लेकिन उनका कोई स्वतंत्र काव्य संग्रह उनके जीवन काल में प्रकाशित नहीं हो पाया। मृत्यु के पहले श्रीकांत वर्मा ने उनकी केवल ‘एक साहित्यिक की डायरी’ प्रकाशित की थी, जिसका दूसरा संस्करण भारतीय ज्ञान पीठ से उनकी मृत्यु के दो महीने बाद प्रकाशित हुआ। मुक्तिबोध एक संवेदन शील और सजग साहित्यकार थे।

 

 

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