साहित्यकार परिचय-अनिल कुमार मौर्य ‘अनल’
जन्म- 22 मई 1980 जन्म स्थान,संजय नगर,कांकेर छत्तीसगढ
माता/पिता – फूलचंद माैर्य श्रीमती राेवती मौर्य
शिक्षा- एमए(हिंदी) इतिहास एवं सन! 2019 में विश्व विद्यालय जगदलपुर द्वारा मास्टर आफ आर्ट की संस्कृत विष्ज्ञय में उपाधि, डी.एड.
सम्मान- साहित्य रत्न समता अवार्ड 2017, साहित्य श्री समता अवार्ड 2018 मौलाना आजाद शिक्षा रत्न अवार्ड 2018, प्राइड आफ छत्तीसगढ अवार्ड 2018, प्राइड आफ छत्तीसगढ अवार्ड, सहभागिता सम्मान।
प्रकाशन-कोलाहल काव्य संग्रह।
सम्प्रति- कांकेर जिले में शिक्षक के रूप में कार्यरत
सम्पर्क-संजय नगर कांकेर 494334(छ.ग.) मो. 8449439969
‘भारतीय देव परंपरा’
भूमिका- भारतीय धर्म परंपरा में शक्ति की उपासना भारतीय देव परंपरा में शक्ति की अनेक रूपों में स्तुति की जाती है। दुर्गा, काली, अम्बे, भवानी, लक्ष्मी आदि देवियों को शक्ति की अधिष्ठात्री मानी जाती है। आज भी नवरात्र का पर्व बड़े उल्लास एवं विधि-विधान के साथ मनाया जाता है। यहॉं तक कि भगवान विष्णु अवतार ‘राम’ को भी रण भूमि में रावण को परास्त करने के लिए शक्ति की उपासना करनी पड़ी थी।
सद्भावना की मिसाल-
पीरानपीर शीतला माता (मंदिर) मेला
मेले सांस्कृतिक विरासत को सहेजते हैं, वैमनस्य और कटुता दूर करते हैं, शांति तथा सद्भाव का संदेश देते हैं। भारत में पश्चिम-निमाड़ का पीरानपीर-शीतला माता मेला अनेकता में एकता का भव्य मिसाल है।
एकता की यही परंपरा 97 वर्षों से बढ़ रहा है। सनावद में इस मेले की शुरूआत 1906 में हुई पीरानपीर बाबा की दरगाह पर हजरत जमालुद्दीन शाह की बरसी पर फकीरों का मेला लगता था। मेले का इतिहास 700 वर्ष पहले का हैै। दरवेज जियारत के बाद अपने मुरीद फकीरों के साथा परीनपीर टेकरी पर आकर रूके थे। पेशवा बाजीराव प्रथम भी इससे प्रभावित थे और उन्होने मजार के लिए इंतजामत के मुजावर खान-दान को पन्द्रह एकड़ जमीन दी थी। पहाड़ी के नीचे शीतला माता मंदिर बीजासनी माता मंदिर और बजरंगबली मंदिर भी स्थित है।
एक ही पहाड़ी पर दो भिन्न सम्प्रदायों के श्रद्धा स्थल होने से ही करीब बीस वर्ष पहले इस मेले को पीरानपीर शीतला माता मंदिर कर दिया गया।
हिन्दू धर्म में तीन ऋणों की परिकल्पना-
‘‘पितृ पक्ष की परम्परा’’
भारतीय संस्कृति में पॉंच महायज्ञों के अन्तर्गत पितृ यज्ञ माना गया है। एक श्राद्ध दूसरा तर्पण भारतीय जन मानस में ये दोनों भाव आज भी जीवित है, परंतु विडम्बना यह है कि इन दोनों भावनाओं का मूल अर्थ व प्रक्रिया लुप्त होकर कर्म काण्डीय आडम्बरों से आक्रान्त व अदृश्य हो गये हैं।
श्राद्ध का अर्थ है कि ‘‘श्रत-सत्यं दधाति यया क्रिया सा श्रद्धा ‘‘जिस क्रिया से सत्य से ग्रहण किया जाए, उसका श्रद्धा और जो श्रद्धा से कर्म किया जाए उसका नाम ही श्राद्ध है। पितृ तर्पण की कोटि में कई लोगों का उल्लेख शास्त्रों में मिलता है। इनमें आध्यात्म और पदार्थ विद्या में निपुर्ण ‘सोनसद’ नामक पितर, अग्नि अर्थात विद्युत विद्या में निपुर्ण, अग्नि शणात् पित उत्तम व उच्चकोटि के व्यवहार में निपूर्ण बहिर्शद नामक पितर ‘सोम औषधि आदि के द्वारा रोग निवारण सोमपा, नामक पितर, मादक व हिंसा कारक प्रत्यों को छोड़कर सात्विक भोजन करने वाले हर्विर्भुज पितर,दुष्टाें को दण्ड व श्रेष्ठों की सुरक्षा करने वाले न्यायाधीश आदि ‘यम’ नामक पितर कहलाते हैं।
जन्म देने वाले वंश के अग्रज पिता पितामह प्रपितामाह व माता पितामही प्रति पितामही व स्त्री पुरूष, पति-पत्नी, भ्राता-भगिनी आदि को व अन्य भद्र पुरूषों को वृद्धि अति श्रद्धा भाव से अन्न, वस्त्र सेवा आदि देकर उन्हें अच्छी प्रकार से तृप्त करना ‘पितृ-तर्पण’ कहलाता है। जिस कर्म क्रिया व व्यवहार से उनकी आत्मा तृप्त और षरीर स्वस्थ्य रहें उस कर्म को समर्पण की भावना से प्रीति पूर्वक करना ही तर्पण व श्राद्ध कहलाता है।
गुरू या ऋषि ऋण-
ऋषियेां में दृष्टा प्रभु के संदेश को वैदिक ऋचाओं के माध्यम से अपने अन्तस्तल में उतार कर वेदों-वेदांतों के द्वारा जो ज्ञान जल ब्रहमा से जैमिनी आदि पर्यन्त ऋशियों ने प्रभावित किया है। उन्ही के समान इस धारा को आगे रखने वाले विद्वान, महाविद्वान और वैज्ञानिक ऋषि कुटी में परिणित होते है। उनकों सेवा, सुश्रुशा करना ऋषि तर्पण कहलाता है।
हरिद्वार नही तो मुक्ति नही-
भारतीय संस्कृति की यह पहचान है कि यह समय-समय पर खुद से जुड़ने का मौका देती है। उत्सव, मेले, स्नान, कुम्भ, अर्द्धकुंभ ऐसे ही अवसर है, जब ईष्वर से साक्षात्कार होते है। कहा जाता है कि ‘‘हरिद्वार हरि का द्वार है यानी मुक्ति का द्वार है। शिवालिक पर्वत (हिमालय पर्वत श्रृंखला) की गोद से निकल कर गंगाहर की पौड़ी पर पहॅंुच कर अपनी गति को विराम देने का प्रयास करती प्रतीत होती है इसी स्थान पर प्रति वर्ष हजारों श्रद्धालु मां का दर्जा देते हुए उसके आंचल से अपने पापों को धोते है। यू तो यह सिलसिला निरंतर चलता रहता है परन्तु प्रति बारह वर्षों के बाद तो लोग जैसे – उस अमृत की वर्षा में स्वयं को पवित्र करने के उद्वेश्य से आते हैं।
मान्यताः- हरिद्वार सप्तपुरियों में से एक है। हर बारहवें वर्ष जब सूर्य चन्द्र मेंश राशि में प्रवेश करते हैं तथा बृहस्पति कुम्भ राशि में होते हैं तब हरिद्वार में मेला भरता है। हर छठे वर्श अर्ध कुम्भ मेला भी यहॉं आयोजित होता है। ऐसी मान्यता है। कि समुद्र मंथन में अमृत की कुछ बॅंूदे छलकी। इनमें से हरिद्वार, नासिक और उज्जैन पृथ्वी लोक पर है जबकि शेष स्थान देवलोक में हैं।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति धर्म, अर्थ काम मोक्ष के बीच समन्वय या संतुलन स्थापित करता है। ऐतिहासिक दृष्टि से भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है, इसमें हजार हजार वर्षों के बाद अटूट संबंधन मिलता है।