कविता काव्य देश

‘परम्पराओं की नदीतमा’ डॉ.गीता शर्मा साहित्यकार,ज्योतिष मनीषी कांकेर छत्तीसगढ़

🚩 जय मां

‘परम्पराओं की नदीतमा’

परम्पराओं की गठरी बांधे,
पातक कर्म से लिपट रहे।
अनंत आकाश,अनंत सागर में,
उड़ रहे हैं या डूब रहे।

अकर्म-सुकर्म में भेद रहा न,
रीति रिवाज सब भूल‌ रहे।।
संस्कार प्रवाहित नदीतमा सी,
गिरवी रख,सब भटक रहे।।

अन्तस-तम नित विघटित होवे,
पीढ़ी को दें नयी पहचान।
संस्कार पोषित पल्लवित हो,
विलुप्त नदीतमा सी न हो?

श्रेष्ट परम्परायें हैं भारत की,
निज धर्मकर्म संस्कार की।
ध्वज थामें जो मानवता की,
क्षमा,दया, परमार्थ की।।

भारत संस्कृति पोषक मां,
जन-जीवन,जल कारण मां।
अद्भुत शक्ति समाहित तुझमें,
धरा में लुप्त प्रवाहित मां।।

 

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