साहित्यकार-परिचय- राखी कोर्राम(गुड़िया )
माता– पिता – श्रीमती छबीला मरकाम श्री बलीराम मरकाम
जन्म – 11 अगस्त 1979 रामपुर (जुनवानी)
शिक्षा – एम. ए.समाजशास्त्र । पोस्ट बी.एस.सी.नर्सिंग
प्रकाशन–काव्य संग्रह – “गुड़िया”,गुड़िया-2
पुरस्कार / सम्मान – दलित साहित्य अकादमी। छत्तीसगढ़ द्वारा वीरांगना। अवन्तिबाई लोधी समता अवार्ड वर्ष (2020) – समता साहित्य अकादमी यवतमाल द्वारा क्रांतिज्योति सावित्री बाई फुले राष्ट्रीय समता । अवार्ड वर्ष (2020) । दलित साहित्य अकादमी। छत्तीसगढ़ द्वारा संत माता कर्मा महिला सशक्तिकरण अवार्ड वर्ष (2021) । समता साहित्य अकादमी। नागपुर द्वारा कर्तव्यदक्ष।नारी शक्ति राष्ट्रीय अवार्ड। वर्ष (2021) समता साहित्य अकादमी जयपुर (राजिस्थान )द्वारा संत मीराबाई अंतराष्ट्रीय
अवार्ड वर्ष (2021) समता साहित्य अकादमी नागपुर (महाराष्ट्र )द्वारा आदर्श नारी शक्ति अवार्ड (2022)
संप्रति – सामु.स्वा.केंद्र नरहरपुर जिला – कांकेर (छ. ग.) में स्टॉफ नर्स के पद पर कार्यरत |
विशेष – कार्यालय कलेक्टर जिला उत्तर बस्तर कांकेर द्वारा महिलासशक्तिकरण प्रशस्ति पत्र वर्ष (2015) – कार्यालय कलेक्टर जिला उत्तर बस्तर कांकेर द्वारा कोरोना
योद्धा प्रशस्ति पत्र। ( 2021)
सम्पर्क – अस्पताल परिसर सामु. स्वा. केंद्र नरहरपुर, जिला–कांकेर (छ. ग.) मोबाइल नम्बर – 9329339007
“पिता का स्नेह “
बचपन में मेरा अपने पिता जी से बहुत ही ज्यादा लगाव था | वैसे भी बेटियां तो होती ही हैं अपने पिता के करीब |जब भी पिता जी कहीं बाहर जाने के लिए सायकिल निकालते मैं सामने आकर खड़ी हो जाती और साथ चलने की जिद किया करती, कभी – कभी तो सायकिल को पकड़ लेती और यदि पिता जी साथ नहीं ले जा पाते तो मैं जमीन पर लोट जाती और जोर – जोर से रोने लगती मुझे मनाना बहुत मुश्किल हो जाता था |
इतने सालों बाद आज मैं अपने किसी काम से बाहर जा रही थी तब पिता जी ने कहा बिटिया मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा क्योंकि तुम अकेली जा रही हो,मैं साथ रहूंगा तो अच्छा रहेगा | मग़र मेरी आँखों में आँसू आ गये ये कहते हुए कि पिता जी मैं आपको अपने साथ नहीं ले जा सकती क्योंकि आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता आप कहाँ मेरे साथ परेशान होते रहेंगे | पिताजी का चेहरा उतर सा गया क्योंकि वे साथ चलने को बहुत ही उत्साहित थे और ख़ुशी – ख़ुशी तैयार भी हो गये थे |
पछत्तर वर्ष की उम्र में इस तरह एक छोटे से बच्चे के जैसे पिताजी का इस तरह साथ चलने की बात ने मेरे ह्रदय को हिलोर दिया,मुझे सहसा अपना बचपन याद आ गया कि मैं बचपन में किस तरह अपने पिताजी के साथ चलने की जिद किया करती थी और पिताजी जी कभी तो मुझे अपने साथ ले चलते थे तो कभी मना बुझा कर छुप कर चले जाते थे |
मेरा “संग पकड़ना” तो महज बचपना था | पिता के प्रति बेटी का अपार प्रेम था मग़र आज पिताजी का इस तरह संग चलने की बात कोई बचपना नहीं है बल्कि पिता का पुत्री के प्रति अपार प्रेम के साथ चिंता भी है कि बिटिया कहीं अकेली तो नहीं |