”उत्तराखंड के होली गीतों की विविधता”श्रीमती झरना माथुर, साहित्यकार,कवयित्री,गायिका देहरादून उत्तरांचल
होली एक ऐसा रंगबिरंगा त्योहार है, जिस हर धर्म के लोग पूरे उत्साह और मस्ती के साथ मनाते हैं। प्यार भरे रंगों से सजा यह पर्व हर धर्म, संप्रदाय, जाति के बंधन खोलकर भाई-चारे का संदेश देता है। इस दिन सारे लोग अपने पुराने गिले-शिकवे भूल कर गले लगते हैं और एक दूजे को गुलाल लगाते हैं। बच्चे और युवा रंगों से खेलते हैं।
उत्तराखंड में होली: होली के जैसे रंग ब्रजमंडल क्षेत्र में हैं,ठीक वैसे ही विविधता के रंग देवभूमि उत्तराखंड में भी दिखाई देते हैं। ब्रज के गीतों पर होली में थिरकता पहाड़ यहाँ की अनेकता में एकता की फुहार के रंग बरसाता नज़र आता है।
लेकिन इसके पर्वतीय अंचल में होली गीतों के प्रस्तुतिकरण और उनके गायन-वादन में पहाड़ की मूल सुंगध भी साफ महसूस की जा सकती है।
होली के त्यौहार को जहाँ वसंत का यौवनकाल कहा जाता है तो वहीँ इसको ग्रीष्म के आगमन का सूचक भी माना जाता है। भारतीय परंपरा में तो त्योहार चेतना के प्रतीक माने गए हैं। वे जीवन में आशा, आकांक्षा, उत्साह व उमंग का ही संचार नहीं करते, बल्कि मनोरंजन, उल्लास व आनंद देकर उसे सरस भी बनाते हैं। वसंत ऋतु में सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में आ जाता है और फल-फूलों की नई सृष्टि के साथ ऋतु अमृतप्राण हो उठती है। इसलिए होली को ‘मन्वंतरांभ’ भी कहा गया है। यह ‘नवान्नवेष्टि’ यज्ञ भी है। फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा के दिन प्राचीन आर्यजन नए गेहूं व जौ की बालियों से अग्निहोत्र का प्रारंभ करते थे, जिसे कर्मकांड परंपरा में ‘यवग्रहण’ यज्ञ का नाम दिया गया। संस्कृत में अन्न की बाल को होला कहते हैं। जिस उत्सव में नई फसल की बालों को अग्नि पर भूना जाता है, वह होली है। अग्नि जलाकर उसके चारों ओर नृत्य करना आदिकालीन प्रथा है।
लेकिन इसके पर्वतीय अंचल में होली गीतों के प्रस्तुतिकरण और उनके गायन-वादन में पहाड़ की मूल सुंगध भी साफ महसूस की जा सकती है।
शास्त्रीयता और गीतों की विविधता–शास्त्रीय और गीतों की विविधता ही उत्तराखंड की होली को विशिष्टता प्रदान
उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में शास्त्रीय संगीत पर आधारित बैठकी होली गायन की परंपरा 150 साल से चली आ रही है। यह होली विभिन्न रागों में चार अलग-अलग चरणों में गाई जाती है, जो होली के टीकेतक चलती है। पहला चरण पौष के प्रथम रविवार को आध्यात्मिक होली ‘गणपति को भज लीजे मनवा’ से शुरू होकर माघ पंचमी के एक दिन पूर्व तक चलता है। माघ पंचमी से महाशिवरात्रि के एक दिन पूर्व तक के दूसरे चरण में भक्तिपरक व शृंगारिक होली गीतों का गायन होता है। तीसरे चरण में महाशिवरात्रि से रंगभरी एकादशी के एक दिन पूर्व तक हंसी-मजाक व ठिठोली युक्त गीतों का गायन होता है। रंगभरी एकादशी से होली के टीके तक मिश्रित होली की स्वरलहरियां चारों दिशाओं में गूंजती रहती हैं।
विदित रहे कि पहले से तीसरे चरण तक की होली सायंकाल घर के भीतर गुड़ के रसास्वादन के बीच पूरी तन्मयता से गाई जाती है। चौथे चरण में बैठी होली के साथ ही खड़ी होली गायन का भी क्रम चल पड़ता है। इसे चीर बंधन वाले स्थानों अथवा सार्वजनिक स्थानों पर वाद्य यंत्रों के साथ लयबद्ध तरीके से गाया जाता है। यहां यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि पहाड़ में बैठकी होली गीत गायन का जनक रामपुर के उस्ताद अमानत उल्ला को माना जाता है। उन्होंने ब्रिटिश शासनकाल के दौरान 1860 में सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा से इसकी शुरुआत की थी। तब से अब तक लोक के संवाहक इस परंपरा का बदस्तूर निर्वहन करते आ रहे हैं।
होली पर शास्त्रीय रागों पर होता है गायन
पहाड़ में बैठकी होली का गायन शास्त्रीय रागों पर आधारित होता है। यह होलियां पीलू, भैरवी, श्याम कल्याण, काफी, परज, जंगला काफी, खमाज, जोगिया, देश विहाग, जै-जैवंती आदि शास्त्रीय रागों पर विविध वाद्य यंत्रों के बीच गाई जाती हैं।
ब्रज के गीतों में मिलती है पहाड़ की सुगंध
पर्वतीय अंचल में गाए जाने वाले होली गीत हालांकि ब्रज से आए प्रतीत होते हैं, लेकिन यहां आकर ये लोक के रंग में इस कदर रचे-बसे कि स्थानीय लोक परंपरा का अभिन्न अंग बन गए। यही विशेषता उत्तराखंड खासकर कुमाऊं की बैठ (बैठकी) होलियों की भी है। शास्त्रीय रागों पर आधारित होने के बावजूद इनके गायन में शिथिलता दिखाई देती है। जिससे शास्त्रीय रागों से अनभिज्ञ गायक भी मुख्य गायक के सुर में अपना सुर जोड़ देता है। गढ़वाल अंचल के श्रीनगर, पौड़ी, टिहरी और उससे लगे इलाकों में भी होली का कुमाऊं जैसा स्वरूप ही नजर आता है। यहां की होली में भी मेलू (मेहल) के पेड़ की डाली को होलिका के प्रतीक रूप में जमीन में गाड़कर प्रतिष्ठित करने और होली गाने का चलन है। एक जमाने में गढ़वाल की राजधानी रहे श्रीनगर और पुरानी टिहरी के राजदरबारों में भी होली गायन की समृद्ध परंपरा विद्यमान रही है। गढ़वाल में होली को होरी कहा जाता है और सभी होरी गीतों में ब्रजमंडल के ही गीतों का गढ़वालीकरण किया हुआ लगता है। अमूमन सभी होली गीतों में कहीं-कहीं गढ़वाली शब्द मिलते हैं, शेष पदावली ब्रजभाषा या खड़ी बोली की रहती है। हालांकि, गढ़वाल में प्रचलित होली गीतों में ब्रज की तरह कृष्ण-राधा या कृष्ण ही मुख्य विषय नहीं होते। यहां अंबा, शिव, ब्रह्मा, कृष्ण आदि कई विषयवस्तु के रूप में प्रयुक्त होते हैं और सबका समान आदर गढ़वाली होली के नृत्यगीतों में होता है।
सब मिलाकर देखा जाये तो उत्तराखंड की होली और उसके होली के गीत दुनियाँ मे एक अलग ही अपनी छठा बिखेरते है।