”सच में क्या मानवता जिंदा है”
सच में क्या मानवता जिंदा है
या केवल हम दंभ भरते हैं l
दो जून की रोटी और
एकल वस्त्र को जन-जन तड़पते हैं ll2
अमीरों की अट्टालिका में जहां
स्वन भी दुग्धस्नान करते हैं l
वही गरीब की झोपड़ी में
नवजात दूध बिना बिलखते हैं ll
बदकिस्मती देखो हलधर की
पेट सहित तन है नंगा l
शीश महल में देखो कैसे
मौज लूट रहा है बंदा ll
विषमता देखो कैसे पसरी
फन फैलाकर सुरसा सा l
एकतरफ गांधीवाला बिस्तर
दूजी ओर घिसरहा गधा साll
इलाज बिना गुड़िया मर रही
विवशता देखो गंगू का l
सूट बूट वाले बाबूको देखो
गुल छर्रा उड़ा रहा नोटों का ll
किस्मत का देखो खेल निराला
अंगूठा टेक चला रहा सरकार l
पढ़े-लिखे पड़वा बाबू
हुजूरी करने को तैयार ll
जातिधर्म की खाई के पाटों को
चौड़ाकर अपना फायदा साधा है l
भोली-भाली आम जनता को
केवल गुठलीसे काम चलाया है ll
क्या सच में यही विकास है
जो केवल अपना घर भरता है ?
चाहे वह उसका सगा हो
उसको भी नहीं छोड़ता है ll
खून पिपासु मानव में
क्या सच में मानवता जिंदा है ?
या फिर वह जंगली पशु बनकर
अपना ही हित साधता है ll
क्या मर्यादा की बातें केवल
किताबों तक ही सीमित है ?
या फिर समाज के अंधकार में
नई आशा की किरण है ??
ज्ञान और विज्ञान की बातें
क्या सच में दिखा रही नई राह ?
या फिर इसके चकाचौंध में
छोड़ रहे पुरानी राह ??
जीवन का तो एक लक्ष्य
मानवता का रक्षा करना l
जरूरतमंद और बेसहारा का
हरदम ही मदद करना ll
इसी मूल मंत्र से तो
जानवर से मानव बन पाए हम l
अब लगता है पुनः चक्र
खुद ही उल्टा चला रहे हम ll
जागो हे मनु के संतानों
अपने को पहचानो तुम ।
मूल रूप से मानव बनकर
धरा का कर्ज उतरो तुम ll