आधुनिकता की दौड़ में हम तेजी से दौड़ रहे हैं,जहां भौतिक सुखों से सम्पन्न हैं।सीधे शब्दों में कहें तो हम भौतिक सुख साधनों वस्तुओं से सुखी हो गए हैं। यह भी कड़वा सच है, कि सुखी होने का जितना दंभ हम भरते तो हैं पर उतनी ही तेजी से भावनाएं मर रही है। प्यार,अपनापन, रिश्ते नातों की भावनात्मकता बंधनें खत्म होने की कगार पर है।
मनुष्य सिर्फ अपने स्वार्थ तक ही संबंध रखने लगा है। परिवार एकल होते जा रहे है, लोग पति पत्नी व बच्चे को ही परिवार मानने समझने लगे हैं। संयुक्त परिवार से दूर एकल परिवार में बच्चे भी एक या दो हैं जो भी पढ़ाई लिखाई के लिए बाहर रहते हैं। हर इंसान समझता है कि हम किसी से कम नहीं, तो फिर हम क्यों झुकें? हम किसी का एहसान क्यों लें! हमें किसी से क्या मतलब? हमें किसी से क्या लेना देना! जब तक स्वार्थ न हो, मतलब रखना पसंद नहीं करते और कहते हैं हम सुखी हैं। मगर ऐसा नहीं। झुठी तसल्ली अपने को देते हैं इस बात का एहसास तब होता है जब परिस्थिति विषम होती है। जब संकट आते हैं उस समय फिर अपनों को तलाशना शुरू करते हैं। और तभी वास्तविकता का पता चलता है, कि हम कितने सम्पन्न हैं।
सम्पन्नता भौतिक सुख साधनों अर्थ की है कि परिवार,समाज में अन्य गुणों में हम सम्पन्न हुए हैं। कितने लोग सच्चे दिल से हमारे हैं। कौन अपना कौन पराया है। धन दौलत कमाना,सुखों की भौतिक साधनों को इकटठा करना कोई बड़ी बात नहीं। हम भौतिक संसाधनों को इकटठा कर सुखी होने का दंभ भरते हैं कहते हैं क्या नहीं हमारे पास जैसी झूठी तसल्ली देते है।ं लेकिन ये वस्तुएं हमारी खुशी में तीज त्यौहार में हमारी खुशियां बांट सकती है? क्या ये वस्तु हमारे दुख के समय हमें सांत्वना दे आंसू पोंछ सकते हैं? नहीं तो हम सुखी कहां हुए? बल्कि हम
तो इन्हीं वस्तुओं को जुटाने में अपनों को भी खो दिए । भावनाओं को मार डाले यह सुख ही तो हमारे दुख का कारण है।
और आज हम सब सुखी होने की पीड़ा झेल रहे हैं। आज बड़े बड़े विकसित देशों के लोगों को नींद नहीं आती, भूख नहीं लगती! भावनाएं मर गई है। परिणाम आधुनिकता की दौड़ का है । हम जितनी भौतिक संसाधनों के करीब होंगे वास्तविक सुख संतोष हमसे दूर होती जाएगी ओर हम हर पल दुखी रहेंगे। हम जितना प्रकृति के करीब रहेंगे उतनी ही सुखों की अनुभूति होगी। चैन से सो सकेंगे, भूख का एहसास होगा, खाने में स्वाद होगा, जिंदगी का मूल्य होगा। माना कि आज के दौर में अर्थ की महत्ता बढ़कर है, पर दौड़ इतनी अंधी न हो कि अंत में आप अकेले पड़ जाएं।