
स्व-विवेक चिंतन मनन, बयान और अब तो स्वतंत्र अभिव्यक्ति भी मिलावट से युक्त होती जा रही,ऐसा लगता है। सियासी क्षेत्र में तो अपने लीडर की बातों,बयानों के साथ चलना पड़ता है। यह इनकी मजबूरी है कि किसी की अभिव्यक्ति में अपनी अभिव्यक्ति को बेच दिया गया हो, यह वे ही जाने।
उद्वेश्य अपने लीडर, अपने आका को खुश रखना या जो भी,लेकिन यदि शिक्षित होकर किसी की अभिव्यक्ति में हां में हां मिलायी जाये तो क्या उन्हें टीस नहीं लगती होगी। यह सवाल तो है।
वैसे सियासी लाईन में कुछ जरूरी बातों पर किसी के द्वारा यदि भूल से भी निष्पक्ष स्वतंत्र अभिव्यक्ति व्यक्त की गई तो किस कदर आज के त्वरित खबरिया चैनलों मीडिया में कई दिनों तक मुद्दा गर्म होता है। गर्म तवे में छौंक मारने वाले और हो लेते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और खतरे पर चिंता भी खूब जाहिर की जाती है। पूरी मुखरता से आलेख लिखे जाते हैं। यह वह सुनहरे पन्ने का एहसास होता है कि जरूर बहूत कुछ बचा है लेकिन जब राष्ट्रीय मीडिया पटल पर पहूंचे साहित्यकार सियासी पार्टियों के आरोप प्रत्यारोप में तु तु मैं, मैं करते रचनाएं पढ़ते हैं तो उन नवोदित साहित्यकारों को जिनकी निष्चित रूप से स्वतंत्र अभिव्यक्ति उके रहे होते हैं उन्हें समझ नहीं आता कि वे किस क्षेत्र में अपनी कदम बढ़ा रहे हैं।
हद तो तब है जब तालियां उन्हीं लोगों को सर्पोट करती है। क्योंकि उकने साथ कोई न कोई सियासी धड़ा मौजूद होता है। आज सोशल मीडिया के दौर में कईयों को भक्तों की संज्ञा से नवाजा जाता है। एक दूसरे पर अंधभक्ति के अलंकार लगाए जा रहे हैं। यही नहीं इन सियासी क्षेत्र से विलग नवोदित रचनाकारों पर भी कहीं लगे तो उन पर भी किसी सियासी धड़े के सर्पोटर के रूप में अर्थ में लिया जाता है। मद है ऐसे में स्वतंत्र अभिव्यक्ति जिस पर बेवजह आरोप लगाए जाते हैं। कुछ तो ऐसे भी हो गए हैं,जिन पर किसी पार्टी विषेश को लिखने वाले साहित्यकार कहलाने पर भी गुरेज नहीं है। इनकी पहचान भी किसी पार्टी के सर्पोटर के रूप में पहचानी जाती है।