कविता

‘मानवों की पहचान’ श्री संतोष श्रीवास्तव ‘सम’ शिक्षक साहित्यकार कांकेर छत्तीसगढ

साहित्यकार परिचय- श्री संतोष श्रीवास्तव ‘सम’
जन्म- 6 सितंबर 1969
माता-पिता –स्व. श्री राजेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव, श्रीमती सुशीला देवी श्रीवास्तव,
शिक्षा- एम. ए. हिंदी साहित्य, इतिहास। डीएड।
प्रकाशन-कविता संग्रह-आसमां छोड़ सूरज जब चल देगा। तुम प्रतिपल हो। कहानी संग्रह–वे सौदागर थे।
सम्मान– राष्ट्र गौरव सम्मान, डॉक्टर अंबेडकर साहित्य सेवा सम्मान, राष्ट्रकवि दिनकर साहित्य सम्मान, रूम टू रीड इंडिया नई दिल्ली द्वारा कहानी पर प्रथम पुरस्कार, सफल सम्मान, न्यू ऋतंभरा साहित्य सम्मान- साहित्य सृजन सम्मान,आदि।
संप्रति- शिक्षक, संपादक जागो भारत ‘त्रैमासिक ‘ पत्रिका।
संपर्क-बरदेभाटा, कांकेर, जिला- कांकेर ,छत्तीसगढ़। पिन 494334 मोबाइल 9993819429

 

‘मानवों की पहचान’

ओह,
कैसे तुम्हें हजम होती है, अपने घर की रोटी,
और बहुत सारे अपने वैभव।

तुम कैसे देख पाते हो,
इन दिनों,
मानव का,
चूल्हा एवं खाली पड़े बर्तनों से,
नाता जुड़ जाना।

तब वहांँ मानवता क्यो मर जाती है,
जो मानव होने की निशानी है।

हां मानव रूपी नस्लें,
और जो इस तथ्य से परे रहकर,
किनारे से साफ निकल जाया करते है,
तो ताली दे कर कहता हूं, वे मानव नहीं है,
मानव के रूप में,
कोई ऐसे जीव हो सकते है, जिसकी तुलना,
किसी भी जीव से नहीं की जा सकती।

यही स्थिति कई परिवारों की, इस कोरोना काल मे,
लॉकडाउन के समय हुई।

तब मैंने जाना,
सच मेरे अगल-बगल भी,
कोई मानव नजर नहीं आते, मैंने सच्चाई जानी है ,
इस अमानवीय दुनिया की,
और उनकी,
जिन पर अपना होने का,
ठप्पा लगा है।

शायद ईश्वर ने कोरोना का यह काल,
यही जानने लाया होगा,
कि इस धरती पर कितने मानव है,
और कितने मानव के रूप में कुछ और हैं,
ठीक ठीक खबर हो सके।

इन गरीबों का तो कुछ नहीं होगा,
दिन ढल जाएंगे,
और यह भी तमाम तकलीफों को सहते,
पार निकल जाएंगे।

इनका क्या बिगड़ेगा,
कुछ भी नहीं।

पर हां बहुत कुछ बिगड़ जाएगा,
उन मानवों का,
जो मानव के रूप में,
मानव नहीं है।

और भटकेगे वे,
जन्मो जन्मो तक,
कई बंधनों में,
कई रस्सियों में,
बंधे हुए से।

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