कविता

.”मेलों के मौसम में” श्री राजेश शुक्ला ‘कांकेरी’ शिक्षक साहित्यकार कांकेर छ.ग.

साहित्यकार परिचय- श्री राजेश शुक्ला कांकेरी

जन्म- 10 दिसंबर 1964

माता-पिता- स्व.कान्ति देवी शुक्ला/स्व.हरप्रसाद शुक्ला

शिक्षा- एम.कॉम, बी.एड.

प्रकाशन- कहानी (किरन),साझा संग्रह (काव्य धरोहर)

सम्मान-

सम्प्रति- व्याख्याता-शास.उच्च.माध्य.विद्या.कोरर, (काँकेर) छ.ग.।
संपर्क- 9826406234

 

.”मेलों के मौसम में”

जीवन होता है इक मेला,
दुनिया के अनगिन रंगों का।
कुछ बेतरतीब सलीकों का,
कुछ सजे सजाए ढंगों का।
कभी अपने ग़म दे जाते हैं,
कभी गैरों से मिलतीं खुशियाँ।
कभी उलझी हुई सी डोरों में,
दिखता है दर्द पतंगों का।

जीवन के इस मेले में लोग,
आते हैं और जाते हैं।
कुछ लोग याद रह जाते हैं,
कुछ भुला दिये भी जाते हैं।
चलते ही रहते हैं मेले,
ये किसी के रोके न रुकते।
कभी कड़वे अनुभव देते हैं,
कभी मीठी याद दे जाते हैं।

कभी कोलाहल लगता मेला,
कभी लगता सुर मृदंगों का।
जीवन होता है इक मेला,
दुनिया के अनगिन रंगों का।

जीवन का यह मेला तो,
हर कोई देखता है जग में।
ईमान किसी का जीवन है,
तो कपट किसी की रग-रग में।
कोई चले रास्ता सीधा,
किसी की होती टेढ़ी चाल।
कहीं रास्ते साफ-सुथरे,
कहीं हैं काँटे पग-पग में।

इस मेले में महल भी है
और गाँव भी भूखों-नंगों का।
जीवन होता है इक मेला,
दुनिया के अनगिन रंगों का।

कहीं कहकहों में दिन कटते,
कहीं प्रलापों की रातें हैं।
कहीं किस्से हैं फुलझड़ियों की,
कहीं बम-धमाकों की बाते हैं।
रेले में इस मेले के,
मिलते-बिछड़ते लोग यहाँ।
कहीं जुड़ते रिश्ते नये-नये
और टूटें पुराने नाते हैं।

ना भीड़ बने यह कौवों की,
यह मेला हो सारंगों का।
जीवन होताहै इक मेला,
दुनिया के अनगिन रंगों का।
. राजेश शुक्ला”काँकेरी”

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