आलेख

शादी कार्ड देना महज कर्तव्य का इतिश्री न हो मनोज जायसवाल संपादक सशक्त हस्ताक्षर कांकेर छ.ग.

– समाज का अर्थ आज एक आम अंतिम सिरे में खड़ा व्यक्ति भी बखुबी जानता है।

दुनिया एक रंगमंच है और हम इसके कठपुतली। इसी मंच पर हमारा परिवार एवं समाज के बीच रिश्तों भावनाओं का आदान प्रदान होता है। एक परिवार में एक व्यक्ति के जन्म से लेकर अंतिम समयों तक विभीन्न संस्कार परंपराओं का निर्वहन किया जाता है। अतीत में जहां संयुक्त परिवार में हर खुशी के मौके पर एकमात्र माध्यम बात कर ही कोई भी संदेश दिया जाता था। आज आयोजनों के आमंत्रण कार्ड से दिए जाते हैं।

बदलते दौर वर्तमान में सोशल मीडिया वाट्सएप फेसबुक से भी संबंधों को बनाए रखने का जरीया समझा जाने लगा है। व्यक्ति के जीवन में एक प्रमुख विवाह उत्सव को ही लें जहां आज कई दफा तो नौकरों या दूसरे व्यक्तियों से अपनी रस्मअदायगी कार्ड बंटवाया जाता है,जहां वह कार्ड छोड़कर आ जाता है। कई दफा तो समय रहते हुए भी पड़ोसी को जहां स्वयं घर के अभिभावकों को देकर आमंत्रित किया जाना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं किया जाता।

कोई कार्ड दे भी तो आने की बात नहीं कहतां कि यह हमारे यहां का कार्ड है और आपको निश्चित रूप से आना है। यदि निकटस्थ हो तो उसे यह भी बोलना है कि आपको आना भी है और आयोजन की व्यवस्था को सम्हालना भी है। इन शब्दों से अपनत्व झलकता है और जवाबदारी का अहसास होता है। ऐसे में ना आने वाला आगंतुक या रिश्तेदार भी ना चाहते हुए भी आने मजबूर हो जाता है।

लेकिन आज स्थिति इतना खराब है कि एक ही परिवार के यहां दूसरे अनजाने व्यक्ति कार्ड पहूंचा रहा होता है। ऐसे में कैसे अपनत्व और जवाबदारी की भावना आ पाएगी यह सोचने की बात है। पूरी लापरवाही पूर्वक इस प्रकार के आमंत्रण से कभी अपनत्व नहीं बढ़ सकता। आप कार्ड ना भी दीजिए लेकिन अपने मीठे बोल से दो शब्द बिल्कुल कहिए कि आपको आना हैं। कई दफा तो स्वयं उक्त सदस्य जिनसे द्वेश हो उनका नाम दर्शनाभिलाषी में होता है,जिसे बोलने की जरूरत होना चाहिए। कार्ड देने का नहीं,क्यों कि वो खुद उस परिवार का दर्शनाभिलाषी है,वह तो दूसरों को आमंत्रित करने का अधिकारी है।

अब कार्ड देने की बात पर कोई सदस्य आयोजन में शरीक नहीं हो पाया तो यही अभिभावक गर्व से यह कहते नहीं थकते कि हमने तो कार्ड दिया था नहीं आया तो क्या करें। याद रखें कोई किसी के यहां खाने पीने का भूखा नहीं है, ना किसी के कार्ड मिलने का। बुद्विजीवी कहला रहे होते हैं यदि इन बातों को नहीं समझ सकते तो ऐसे बुद्धीजीवित्व कुछ काम का नहीं है।

आपके स्वयं के अपने जिनसे आपका  दृवेश  का नाता हो लेकिन विवाह जैसे अवसरों पर उस दुश्मन का ना आना भी कभी ना कभी टीस जरूर देता है। यह टीस हजारों की भीड़ में भारी पडता है,बाहरी तौर पर नहीं आत्मिक तौर पर।

समाज समाज की रट लगाने से आपकी सामाजिकता तय नहीं हो जाती। दिल में मैल जमा कर कहां के बुद्धीजीवी होने का बात करते हो। समाज की रट लगाने को अपने प्रसिद्धता का मापदंड मानने की भूल कदापि ना करें। समाज का अर्थ आज एक आम अंतिम सिरे में खड़ा व्यक्ति भी बखुबी जानता है। ना शादी कार्ड अपितु अन्य आमंत्रण पर भी सकारात्मक भाव जरूरी है।

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