कहानी देश

”सोमनाथ” डॉ मधु तिवारी शिक्षिका साहित्यकार‚कोण्डागांव बस्तर (छ.ग.)

साहित्यकार परिचय
डॉ मधु तिवारी
माता ⁄ पिता – श्रीमती राजमणि पाण्डेय‚ स्व.एस.एस पाण्डेय
जीवनसाथी- श्री ब्रजेश तिवारी  संतति- पुत्री-प्रियल तिवारी  विधि तिवारी
जन्म- 30 मार्च 1973
प्रकाशन-
– एकल काव्य संग्रह मुखरर्मौन , * समर्थ साहित्यकार एवं कलाकार सुरेंद्र रावल
– कई साझा संग्रह
सम्मान-
– डॉ मुकुटधर पांडे सम्मान
–राज्यपाल शिक्षक सम्मान
– मुख्यमंत्री शिक्षक गौरव अलंकरण
–महादेवी वर्मा स्मृति सम्मान
– बस्तर लोक साहित्य एवं कला सम्मान आदि
सम्पर्क- सरगीपाल पारा कोंडागांव मो. 9713125160

”सोमनाथ”
कभी-कभी कुछ विचित्र सी हरकत करता सोमनाथ। क्लास में भी बच्चें उसे कुछ बोलते या उसकी कोई चीज छू लेते तो वह तुरंत ही मारने दौड़ पड़ता, या उनके कपड़े नोचने लगता।  हमेशा बीच-बचाव कर उसे समझाना पड़ता। प्रार्थना के समय भी मन किया तो सीधे खड़े हुआ
नही तो खुद में ही मस्त रहता। कभी अपनी शर्ट नीचे खींचता,तो कभी पेंट की जेब में हाथ डालता

  अक्सर मैडम आरती उसे टोकती सोमनाथ राष्ट्र-गीत या राष्ट्र गान के समय बिल्कुल सावधान  रहना है। कभी कभार ही सुनता उनकी बात। अगल-बगल के बच्चें अक्सर फुसफुसाकर उसे सीधे  खड़े होने को बोलते। किसी की बात को समझना या उस अनुरूप व्यवहार करना वह जरूरी नही  समझता। बावजूद उसके चेहरे पर र्काइे तनाव भी नही रहता। मैं चुपचाप उसे पढ़ने की कोशिश  करती।वैसे सभी बच्चों की तरह उसमें भी नई चीजे जानने, समझने की उत्सुकता रहती है पर  क्षणिक। नई बातें सुनते समय कभी अपनी ऑखे भींचता, तो कभी मुंह बनाता। क्लास में पहुॅचकर

सबसे पहली लाइन में एक फिक्स जगह पर बैठकर तुरंत झोले से कॉपी पेन निकाल लिखना शुरू कर देता। वहीं पूरी कक्षा के बच्चे सक्रिय बैठकर अपने नाम पुकारे जाने के इंतजार मंे रहते ताकि मैडम जैसे नाम ले तुरंत एस मैडम बोलकर अपनी हाजरी दे सके। लेकिन सोमनाथ को इन सब से कोई मतलब ही नही होता। उसका नाम पुकारे जाने पर बच्चे उसे बोलते सोमनाथ एस मैडम बोल ना।

कभी तो शिक्षक स्वयं उसे देख उपस्थिति भर देते । कभी मन हुआ तो खुद सुन लेता, जेब में  हाथ डालकर खड़ा हो, पहले एक नजर चारो ओर घुमा लेता फिर हल्की सी मुस्कुराहट के साथ एस मैडम बोलकर बड़ी तेजी से उछलकर अपनी जगह में बैठ जाता। इसी बीच कॉपी लेकर मैडम  के पास खड़ा हो जाता। इस बात से बिल्कुल फर्क नी पड़ता उसे कि अभी मैडम उपस्थिति ले रही है। सब बच्चें उसे देखते कुछ फुसफुसाकर आपस में हॅसते।

लेकिन वह पूरे हक से जाकर वहॉं खड़ा ही रहता। जब तक मैडम उसकी कॉपी चेक न कर दे। यदि कॉपी चेक करके गुड नही बोला तो बिल्कुल शांत, कॉपी तेजी से लेकर अपनी जगह पर तुरंत वापस बैठकर फिर कुछ लिखता। यदि गुड बोल दिया तो थोड़ी कंजूसी से मुंह टेड़ा कर हॅंस लेता। कुछ पूछने पर ऑखे जमीन की ओर कर दांत भींचने लगता। सुनता सब था लेकिन क्या, कौन से उसे कोई मतलब ही नही था।

जब सभी बच्चे कक्षा में पढ़ने – लिखने में मगन रहते तो कई बार अचानक गाने की, सीटी की,  हॅसने की या किसी पक्षी की आवाज कक्षा पहली से अक्सर सुनाई पड़ती। लेकिन उसपर बच्चे  कोई प्रतिक्रिया नही करते। शायद वे कॉफी सुन चुके थे और उसके आदी हो गए थे। यह भी जानते थे कि आवाज कौन करता है। पर मुझे जानना था कि आवाज करता कौन है। 

इसलिए मैं उनके बीच जाकर खड़ी रहती। आवाज इतनी परफेक्ट व आकर्षक होती कि तुरंत बोलकर बंद करवाना मैं नही चाहती थी, उन्हें ज्यादा रोक-टोक करना भी ठीक नही था। मेरे मन में यह बात भी थी कि ज्यादा बोल दिया तो दूसरे दिन से उनका स्कूल आना ही बंद न हो जाए। तभी मुझे लगने लगा इनके बीच शिक्षक बनके या बड़े बनकर रहने से कुछ हासिल नही होगा। मैंने यह तय कर लिया इनके करीब जाने के लिए इनके दोस्त बनने में ही भलाई है। बिना देर किए मै भी उनके बीच जगह बनाकर जमीन पर बैठ गई। पहते तो बच्चे मुझसे थोड़ी दूर खिसकने लगे।

 

फिर मैने पूछा क्या हुआ ? मेरा यहां बैठना तुम लोगों को अच्छा नही लगा, बड़े उदास भाव से  बोली ! बच्चों ने कोई जवाब नही दिया, न ही मुझे कोई अपेक्षा ही थी। मैं भी उनकी तरह कॉपी  पेन लेकर लिखने लगी। मैंने कहा सोमनाथ थोड़ा दिखाओ मुझे भी क्या लिखना है। सुनकर सभी  बच्चे मेरी ओर देख मुस्काने लगे। मैने फिर कहा अच्छा गीता तुम ही दिखाओ मुझे। गीता ने अपनी कॉपी आगे करके मुझे दिखाया फिर तुरंत ही झटके से अपनी ओर कॉपी खींच ली।

मुझे अहसास होने लगा था कि बच्चो ने मुझे अपनी बिरादरी में शामिल कर लिया है। थोड़ी देर लिखने के बाद मैंने अपनी कॉपी बाजू बैठे केशव को देकर चेक करने को कहा। मैं अक्सर बच्चों की कॉपी आपस में चेक करवाती और गलतियों पर गोला लगाने कहती। केशव ने उसी तर्ज पर मेरी लिखावट पर राइट के साथ गलती पर गोला लगा दिया। यह गलती मैने जानबूझकर की थी। मन ही मन मै प्रसन्न थी उसके इस व्यवहार से। अब यह मेरी दिनचर्या हो गयी थी। बच्चें पूरी तरह मुझसे घुल-मिल गए थे। एक बार फिर मैं अपना बचपन जीने लगी थी। अब बच्चे मुझे चिल्लाते आज यहां बैठो।

अच्छा आज ये जगह है मेरी, बोलकर बैठ जाती और वो बड़े खुश हो जाते। उनसे ही पूछंती बताओ अब क्या करेंगे। कभी कविता पढ़ेगे, कभी अंग्रेजी पढ़ने को कहते। मेरे पूछने पर और  खेलेंगे कब ? तो बड़ी जिम्मेदारी से बोलते, अभी नही बाद में खेलेंगे। हम सब साथ किताब पढ़ते,
लिखते और गणित के प्रश्न‘ हल करते। अगले दिन मैं कक्षा में जाकर सोमनाथ के बगल में बैठ  गई। वह थोड़ा शरमाया।

मैंने पूछा मैं आज यहॉ बैठ सकती हूं सोमनाथ । सिर हिलाकर उसने मुझे अनुमति दे दी। मैंने कहा चलो आज जोड़ के प्रश्न देती हॅू और मैं सोमनाथ की कॉपी लेकर खुद ही सवाल देने लगी। सब अपनी-अपनी कॉपी मेरी ओर बढ़ाने में होड़ करने लगे। मैने स्थिति सम्भाला और कहा लाइन से मैं खुद सबकी कॉपी ऊठा लूंगी आप अपने सामने रख लो, सबको यह बात समझ आई। हर कॉपी में मैंने अलग-अलग प्रश्न दिए और कॉपियॉ वापस करके उन्हे अपने-अपने प्रश्न हल करने को कहा। मैं भी अपनी कॉपी में प्रश्न बनाती रही।

सोमनाथ ने बहुत जल्दी प्रश्न हल किया और मुझे दिखाने लगा। मैने देखा वो खुद ही अपना प्रश्न लिखकर हल रके लाया था। वैसे सभी जोड़ सही किए थे लेकिन मै समझ नही पाई उसने मेरे दिए सवालो को क्यों नही बनाया। कुछ पूछने पर मौन खड़ा रहता । फिर मुझे लगा शायद अंको की सही पहचान अब तक नही बन पाई है उसकी। वही बैठे-बैठे मैने रनिंग ब्लैक बोर्ड में कुछ अंक लिखे और उससे पूछा सोमनाथ बताओ क्या लिखा है। उसने तुरंत सही जवाब दे दिया। फिर वही अंक मैने उसकी कॉपी पर लिखा और पूछा लेकिन इस बार वह शांत था। मैं उसके इस व्यव्हार से थोड़ी परेशान थी लेकिन नाउम्मीद नही। इसलिए अगली बार सही जवाब का इंतजार करती।

अगले दिन मैने उन्ही अंको को लिखकर जोड़ के प्रश्न दिए। सभी बच्चों ने हल करके दिखाया। सोमनाथ ने भी दिखाया लेकिन आज भी उसके प्रश्न दूसरे ही थे। उसने बनाए बिल्कुल सही थे। जिसने मेरे दिमाग की उथल-पुथल और बढ़ा दी। फिर लगा अभी तो दो-तीन माह ही हुए हैं इन बच्चों को स्कूल आते। शायद कुछ और वक्त लगे पक्की पहचान बनाने में अंको व अक्षरों की। मैंने पुनः नए प्रश्न दिए और यूं ही उनके अंको को ब्लैक बोर्ड पर बहुत बड़ा -बड़ा लिख दिया। इस बार सोमनाथ सबसे पहले सवाल हल कर खड़ा हुआ। मैं मुस्कुराते हुए कॉपी चेक करने लगी और सोच रही थी इस बार जाने क्या प्रश्न हल किया होगा। लेकिन उसने सारे वही प्रश्न हल किए थे

जो मैने ब्लैक बोर्ड पर लिखे थे। यह मेरी समझ से परे था। मै जल्द ही कॉपी उसे थमाते हुए ब्लैक बोर्ड की ओर बढ़ी और कुछ नए अंक वाले प्रश्न और लिख दिए वैसे ही बड़े-बड़े जैसे पहले  लिखे थे। पलक झपकने तक सोमनाथ फिर कॉपी लेकर मेरे सामने। मैने तुरंत ही उसकी कॉपी
पकड़ ली। उसने ज्यों के त्यों प्रश्न लिखकर हल किए थे। मैं लगातार तीन-चार बार वैसे ही प्रश्न  देती गई और वह सही-सही दिखाता गया। मुझे लगा बहुत हो गया अब कोई प्रश्न नही दूंगी  लेकिन मन नही माना। फिर उसकी कॉपी में नए प्रश्न लिख दिये। उसने स्वयं से बनाकर कुछ प्रश्न हल करके मुझे दिखाए।

आज मुझे पहली बार लगा, शायद इसको देखने में कुछ परेशानी होती है। मैने अगले ही दिन उसके माता-पिता को बुलवाकर बात चीत की। मुझे लगता है सोमनाथ की ऑख में कुछ परेशानी है उसे ऑंख के डॉक्टर के पास ले जाकर दिखाने की आवश्यकता है। उन्हें स्वयं के द्वारा हर संभव मद्द का आश्वासन भी दिया। अगले दिन ही पिता, सोमनाथ को अस्पताल ले गए और जॉच द्वारा पता चला बच्चे के ऑंख में कुछ प्रॉबलम है, उसे हाईपावर का चश्मा लगाना होगा। हजार रूपए का चश्मा व डॉ. की फीस उनके लिए बड़ी रकम थी फिर भी पिता ने हिम्मत दिखाई। हमसे भी किसी प्रकार की मद्द नही ली। अगले दिन जब सोमनाथ स्कूल आया तो गले में पड़े रेशमी काले धागे में अच्छी तरह गुंथकर बंधा मोटा पावर वाला चश्मा उसके ऑंखो की रोशनी सामान्य कर रहा था।

आज सोमनाथ पूरे स्कूल में सबके लिए आकर्षण का केन्द्र था और हमने भी 15 वर्षों में गांव में किसी को चश्मा लगाते नही देखा था। उस दिन सोमनाथ चुपचाप जाकर क्लास में पीछे की पंक्ति में बैठा था। वह शरमाता हुआ ऑंखे नीचे किए हुए बिल्कुल शांत था। जैसे मेरी निगाह उसपर पड़ी मैने तुरंत उसे सामने बुलाया और कहा अरे वाह! क्या बात है। आज हमारे बीच स्मार्ट, जीनियस बच्चा कहां से आ गया है। बोलो,बोलो बताओ बच्चों ? बच्चे एक साथ चिल्ला कर बोले सोमनाथ। मैने कहा देखो तो कितना प्यारा लग रहा है, तो चलो इसके लिए ताली बजाओ।

सबने जोर से ताली बजाई। सोमनाथ सामने देखकर मुस्कुराने लगा। लेकिन मेरी ऑखे डबडबा आई और आत्मग्लानि मे सिर्फ यही विचार मन में आता रहा कि न जाने सोमनाथ अब तक कितनी परेशानियों से जूझ रहा था। अब वह फटाफट सारी किताबे पढ़ता, देखता और लिखता। अपने आप को सुपर हीरो की तरह समझ, इठलाता हुआ अपनी जगह पर जाकर बैठता। अब उसे यह नही बताना पड़ता कि प्रार्थना में कहॉ और कैसे खड़े होना है या उपस्थिति के समय अपना नाम सुनकर एस मैडम बोलना है। वह खुद ही अपनी बारी आने का इंतजार करता। उसे अपनी ऑखो से रंग-बिरंगी दुनिया सामान्य जो दिखने लगी थी।

 

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