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सामाजिक सत्ता रूतबे का क्या? मनोज जायसवाल संपादक सशक्त हस्ताक्षर कांकेर छ.ग.

(मनोज जायसवाल)
सत्ता चाहे सियासी हो या सामाजिक! हासिल होने के बाद समय नहीं लगता अपनी भावनाओं,विचारों को परिवर्तित होने में। उन्हें पता है, यह वो वक्त है,जब हमें झुकना है। सामाजिकता की मीठी-मीठी बातें करना है। जिस अंतिम व्यक्ति को ऊपर उठाने आश्वासन दिया जाता है,जिस मध्यमवर्गीय परिवार में अपने को उनका हमदर्द साबित करने के लिए ऐसा लगे कि हम उनके हैं। एड़ी चोटी एक कर दी जाती है। इतना ही नहीं घर के मुखिया से नहीं बनने की स्थिति में उनके मित्रों,रिश्तेदारों,अन्य व्यक्तियों की खोज होती है,जिनसे उनका बनता है। फिर क्या उनके माध्यम उन्हें अपना बना लिया जाता है। अंतिम अस्त्र पैसे का होता है, जहां आत्मस्वाभिमानी व्यक्ति कभी नहीं चाहेगा कि इनके द्वारा वोट के नाम वो पैसे ले। कुल मिलाकर बिना शुल्क के व्यक्ति का अमूल्य वोट ले लिया जाता है।

प्रभावित व्यक्ति का सोच होता है कि वे तल्ख पैसे क्यों ले? जीत जाये तो काम आये! हमें याद रखे। लेकिन यह सोच धरी की धरी रह जाती है,जब कोई सामाजिक सत्ताधारी जीत जाये तब उनका वही मोबाईल जिनसे समाज के अंतिम गरीब व्यक्ति तक बात होती है, नहीं उठता।

कभी कोई व्यक्ति काल करे तो उन्हें अपनी व्यस्तता की बात कह कर काट दी जाती है। वह अपना दर्द बात ही व्यक्त नहीं कर पाता इससे पूर्व ही उनकी भावनाएं एक सिरे से हलाल कर दी जाती है। सत्ताधारी प्रमुख की भावनाओं को भी मृत ही माना जाये। फिर तो उनका रूतबा बड़े लोगों के साथ ही चलता है।

ये रूतबे वाले जरूर कहलाते हैं,लेकिन जिस अंतिम व्यक्तियों के मत हासिल कर इनकी सत्ता मिली रहती है,उनके लिए तो इनके अंतस से सम्मान कुछ भी नहीं रहता। कारण कि इन्हें अपने व्यक्तिगत दर्द के नाम भी मतदान किया था।

नाक तो कुछ ही दिन ऊंची रहना है। एक दिन तो उसी धरा में आना है,जिस धरा से ही ऊपर उठे थे। जवाब तब भी मिलता है,मुंह से नहीं मतदान से। खुद के हवा में उड़ने का नतीजा तब पता चलता है। तब उस पंचवर्षीय में उस चेहरे से टकरा रहा होता है,जिनसे उनके परिवार में खुशहाली,अन्याय नहीं होने,गरीबी से उपर उठाने का वादा किया रहता है। याद तो पहले से मस्तिष्क पटल में होता है,लेकिन रोल याद न होने का जो इनका मंसुबा रहता है। बेशर्मी यहीं नहीं थमती, मुंह में जवाब के लायक नहीं होने पर भी इस बार किये जाने की बात होती है। लेकिन तब आगे का वक्त इनका नहीं होता।

अपने लिए अच्छा होगा व्यक्तिगत हो या सार्वजनिक! वादा हमेशा,हर पल याद रहे। वादे मुताबिक समर्पण अंतिम व्यक्ति तक हर पायदान में रहे। अपने रूतबे का अहं रहा तो आने वाले समय के लिए सामाजिक सीख अंतिम व्यक्ति की जुबां से आपको मिल रहा होता है। वादे पूरे नहीं होने पर सिर झुका कर पूरी बेशर्मी स्वीकार भी करना पड़ता है। आप बड़े बड़ों,ओहदे वालों के साथ रहे यह आपको सलाम पर आपका आने वाला ओहदा क्या वैसा ही होगा यह तो वक्त बतलाता है। सोशल मीडिया में आपकी चलती उंगली ठिठक जाती है। खुद को लगने लगता है कि आभासी दुनिया शायद आभासी ही है,जमीनी धरातल कुछ और है।

 

 

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