(मनोज जायसवाल)
आज समाज में तलाक के केस निरंतर बढ़ते चले जा रहे हैं, जिसकी समुचित जिम्मेदारी ना केवल पत्नी की अपितु पति की भी है। क्योंकि विवाह एक सामाजिक मान्यता है और पति पत्नी गाड़ी के दो पहिए की तरह है, पर आज नारी स्वतंत्रता को लेकर जिस प्रकार नारी अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति के लिए अपने अधिकारों का उल्लंघन करते हुए समाज और परिवार में अपनी जगह निरंतर खोती जा रही है उसका सबसे बड़ा दंड प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से बच्चों पर दिखाई देता है।
एक और जहां महिलाएं अपने स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति के चलते परिवार और समाज में आपसी तालमेल नहीं बिठा पाने की वजह से और अत्यधिक महत्वाकांक्षी होने की वजह से निरंतर परिवार त्रासदी का दंश झेल रहा है और विडंबना यह है कि हमारा भारतीय परिवार तलाक जैसे ज्वलंत समस्याओं से लगभग हर एक घर जूझ रहा है।
क्या सचमुच हमारा भारतीय समाज जिसकी परिपाटी ही विवाह जैसी सामाजिक मान्यता से चलती आ रही है क्या यह भी एक विदेशों की तरह पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित होकर कहीं विवाह जैसी हमारी संस्कृति पर प्रश्नवाचक चिन्ह तो नहीं लगाएगी?आइए, अब हम थोड़ी चर्चा कर ले कि आखिर अचानक से यह तलाक की बाढ़ पति -पत्नी के रिश्ते को कैसे छु पायी ?
आज महिलाएं कहीं -ना -कहीं खुद को उपेक्षित मानते हुए साबित करने की होड़ में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने को ही अपनी अस्तित्व का परिचायक मानती हैं।
और यह सबसे बड़ी वजह है हमारी औरतें घर से निकल कर नौकरी पेशा होते हुए अपना जीवनयापन स्वतंत्र तरीके से करना चाहती हैं। आत्मनिर्भर बनने की इस होड़ ने कहीं ना कहीं नारी स्वतंत्रता की आड़ में धीरे-धीरे ही सही हमारे परिवार की परिपाटी को खोखला करता चला जा रहा है, जिसके परिणाम स्वरूप आज विवाह जैसी सामाजिक मान्यता हर एक घर में कहीं ना कहीं तलाक का वीभत्स रूप लेती चली जा रही है।
इतिहास उठाकर देख लीजिए, आज हमारे बीच इस बराबरी की होड़ ने नारियों की स्थिति को कहीं पर भी सुरक्षित नहीं रखा है, एक और जहां नारी आर्थिक रूप से अपने आप को मजबूत करती चली जा रही है तो दूसरी ओर आपसी सामंजस्य ना होने से पति पत्नी के बीच छोटी-छोटी बातों पर तकरार रोजमर्रा का चलन होता चला जा रहा है सक्या वास्तविक में अर्थ की आजादी अथवा नारी स्वातंत्र्योत्तर पर हमें पूर्ण रूप से विचार कर मंथन कर इस ज्वलंत समस्या को समाज के परिप्रेक्ष्य में उजागर नहीं करना चाहिए?
21वीं सदी का भारत क्या महिलाओं के आजादी का दुरुपयोग अथवा कानूनी अधिकारों का एकपक्षीय समाकलन करता हुआ नजर नहीं आ रहा है ? पहले भी समाज नारियों को पूजता था पर आज वह स्थिति- परिस्थिति नारी खुद स्वयं से अपने आप को आर्थिक आजादी के भार मैं डालकर परिवार और समाज के प्रति सामंजस्य नहीं बिठा पाने की वजह से कई प्रकार के मानवीय अवगुणों का शिकार खुद को बनाती जा रही है‚ जिसका साफ उदाहरण समाज में बलात्कार जैसे विडंबना एक के बाद एक होती दिखाई दे रही है सक्या हम मानते हैं की नारी शिक्षा समान अधिकार आर्थिक आजादी और महत्वाकांक्षी महिलाएं अपने अधिकारों का स्वयं में हनन कर स्वक्ष पारदर्शिता को आत्मसात कर पाने में असफल होती जा रही हैं ?
तलाक जैसा ज्वलंत और तकलीफ महिला और महिला की महत्वाकांक्षा हमारे समाज के लिए एकल होकर जीनेमें किसी दंश से कम नहीं साहित्य समाज का दर्पण होता है और इसीलिए जब जब मानवी समस्याएं समाज में उजागर हुई है तब तब कलम के माध्यम से कलम कारों द्वारा समस्याओं का निवारण किया जाता रहा है आज भी हमारे समक्ष तलाक जैसी ज्वलंत समस्या मुंह बाए खड़ी है।
हम सबका फर्ज हम सब की जिम्मेदारी बनती है की समाज में आई इस समस्या पर विचार मंथन कर लोगों में जागरूकता विभिन्न मंची माध्यमों जैसे नुक्कड़ नाटक और भी अन्य संसाधनों के द्वारा विभिन्न प्रकार की एनजीओस के माध्यम से और अन्य प्रकार की काउंसलिंग महिला अधिकारों का कानूनी संरक्षण ऐसी बहुत -सी अलग-अलग तैयारियां हम करते रहे ताकि हमारे बीच की महिलाओं का घर उनके आपस के रिश्तो में तलाक जैसी कुत्सित मानसिकता घर ना करें और परिवार उनका खुशहाल बना रहे।
लेखिका डॉक्टर पल्लवी शुक्ला
सहायक प्राध्यापक हिंदी
शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय बालोद