साहित्यकार परिचय :
डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति
माता : स्मृति शेष श्रीमती मोगरा देवी
पिता : स्मृतिशेष श्री रामखिलावन टण्डन
जीवन संगिनी : श्रीमती गायत्री देवी
जन्म : 01 जुलाई 1964, मस्तूरी, जिला-बिलासपुर, छ.ग. (भारत)
शिक्षा : एम. ए. (समाजशास्त्र, इतिहास, राजनीति विज्ञान), पी-एच.डी., डी. लिट्. (मानद)
उपलब्धियाँ : मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग से “जिला महिला एवं बाल विकास अधिकारी” पद पर चयनित (1996)
प्रकाशित कृतियाँ : काव्य संग्रह-27, हास्य व्यंग्य संग्रह-2, बाल कविता संग्रह-2, गजल संग्रह-2, कहानी संग्रह-10, लघुकथा संग्रह-7, उपन्यास-2, यात्रा संस्मरण-1, कुल-53 पुस्तकें, साझा काव्य संग्रह-15.
समीक्षक के रूप में : 1. श्रीमती शिरोमणि माथुर की कृति- ‘अर्पण’ और ‘मेरा दल्ली राजहरा’ 2. श्री गणेश्वर आजाद ‘गँवईहा’ की कृति- ‘नवा बिहान’, 3. श्री चेतन भारती की कृति- ‘सुनता के राग’, 4. डॉ. गोवर्धन की कृति- ‘दर्द’, 5. डॉ. जे. आर. सोनी की कृति- ‘मोंगरा के फूल’, 6. श्री विजय राठौर की कृति- ‘दिन उजालों के’, 7. श्रीमती मीरा आर्ची चौहान की कृति- ‘रेत पर लिखा दर्द’ की समीक्षा लिखी गई।
सम्पादन कार्य : साझा काव्य-संग्रह 1. सतनाम हमर पहिचान, 2. माटी मोर मितान, 3. माँ, 4. मेरी कलम से, 5. अग्निपथ के राही, 6. सरगम के मेले, 7. पंखुड़ियाँ, 8. 21वीं सदी के कलमकार, 9. अहसास, 10. यादों की शमा, 11. कलम की अभिलाषा, 12. सतनाम-संसार, 13. कलम के कारनामे का सम्पादन किया गया।
सम्मान/अलंकरण : असाधारण साहित्य सेवा के लिए डॉ. नेल्सन मंडेला ग्लोबल ब्रिलियंस अवार्ड-2022, मैजिक बुक ऑफ रिकॉर्ड द्वारा डॉक्टरेट की मानद उपाधि-2022, सुदीर्घ साहित्य सेवा हेतु लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड-2023, डॉ. बी.आर. अम्बेडकर नेशनल फैलोशिप अवार्ड-2019, राष्ट्रभाषा अलंकरण- 2019, उत्तरप्रदेश साहित्यपीठ द्वारा साहित्य वाचस्पति सम्मान-2020, बेस्ट ऑथर ऑफ दी ईयर-2021, विश्व के सर्वाधिक होनहार लेखक के रूप में जैकी बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज होकर टैलेंट आइकॉन-2022, हरफनमौला साहित्य लेखन हेतु भारत भूषण सम्मान 2022-23, भारत के 100 महान व्यक्तित्व में शामिल कर राष्ट्रीय महात्मा गांधी रत्न अवार्ड-2023, अमेरिकन (USA) एक्सीलेंट राइटर अवार्ड- 2023, सहित कुल 30 प्रतिष्ठित राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय एवं वैश्विक सम्मान एवं अलंकरण प्राप्त।
विशेष : वेश्यावृत्ति के सन्दर्भ में सेक्स वर्करों की दर्द में डूबी जिन्दगी के बारे में रचित “अदा” नामक उपन्यास विश्व में सर्वाधिक पढ़े जाने वाले उपन्यासों में से एक है।
सम्प्रति : उपसंचालक, छत्तीसगढ़ शासन, महिला एवं बाल विकास विभाग। संस्थापक एवं प्रदेशाध्यक्ष- छत्तीसगढ़ कलमकार मंच (राष्ट्रीय सेवा रत्न सम्मान प्राप्त)
सम्पर्क : “मातृछाया” दयापुरम मस्तूरी- 495551, जिला- बिलासपुर (छ.ग.) मो. 98937 28332/87706 75527
”वफ़ा की देवी”
वक्त का पहिया घूमा और आईने में तस्वीर बदल गई। अपने चाचा एवं ससुर जलालुद्दीन की हत्या करके अलाउद्दीन खिलजी ने दिल्ली के तख्त पर कदम रखा। ततपश्चात भीतरी प्रदेशों को जीतता हुआ बारह सौ सन्तानबे में गुजरात पर आक्रमण करके राजमहलों और खजानों को जी भरकर लूटा। सोलंकी राजा रायकरण अपनी नन्हीं बिटिया देवल के साथ भाग निकले, किन्तु रानी कमलादेवी आक्रमणकारियों के हाथ लग गए। उनके रूप-सौन्दर्य पर मुग्ध होकर सुल्तान ने उसके साथ विवाह कर लिया।
इस लूट में शाही सेना के हाथ एक हिजड़ा भी लगा, जो मलिक कफूर के नाम से जाना गया। वह अत्यन्त रूपवान था, जो जन्म से हिन्दू था, लेकिन सुल्तान से अनैतिक सम्बन्ध जुड़ जाने पर मुसलमान बन गया था। फिर शाही सेना ने देवगिरी पर हमला कर वहॉं के राजा रामचन्द्र को परास्त करके कमला देवी की पुत्री देवल को अधिकार में लेकर दिल्ली ले गए। वर्षों बाद माँ- बेटी का मिलन हुआ। दस वर्ष की उस परम सुन्दरी बालिका को क्या पता था कि षड्यंत्र की भूमि दिल्ली में उन्हें अभी न जाने और कितने दुःख उठाने पड़ेंगे।
कुदरत का मायाजाल बड़ा अजीब है। वह जिसे देता है बेहिसाब में सुन्दरता देता है। देवल रानी उन्हीं खुशनसीबों में से एक थी। वास्तव में देवल का सौन्दर्य महकते गुलाब की तरह था। सुल्तान की एक अन्य बेगमों में से खिज्रखान नामक एक सुन्दर पुत्र था, जो देवल से उम्र में दो वर्ष बड़ा था। शुरू से ही देवल और खिज्रखान परस्पर प्रेम करने लगे थे। वे दोनों सारा दिन साथ-साथ खेलते रहते थे। खिज्र की शक्ल देवल के भाई से काफी मिलती जुलती थी, इसलिए कमलादेवी उससे बहुत स्नेह करती थी।
देवल और खिज्र की बढ़ती प्रीति को देखकर सुल्तान को बड़ी प्रसन्नता होती थी। उसने मन ही मन निश्चय कर लिया था कि बड़े होने पर दोनों का विवाह कर देंगे। उन दोनों में यौवन के आगमन के साथ प्रगाढ़ता दृढ़तर होती चली गई। एक स्थिति ऐसी आ गई कि एक-दूसरे को देखने के लिए विकल रहने लगे। प्रेम कभी छुपता नहीं। दोनों की प्रेम कहानी कुटिल राजमहलों की निगाहों से छुप न सकी। उन निगाहों में दोनों के प्रेम के बीच धर्मगत कट्टरता और भविष्य में सत्ता प्राप्ति पर प्रभुत्व की लालसा किसी कीड़े की तरह कुलबुलाने लगी।
एक दिन सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने मल्लिका-ए-जहां से कहा – “बेहतर होगा कि ख़िज्रखान और देवल के विवाह की तैयारी की जाए।”यह सुनकर मलिका-ए-जहां के तन-बदन में आग लग गई, क्योंकि सबसे बड़ा शहजादा होने के कारण ख़िज्रखान हिन्दुस्तान के विशाल साम्राज्य का उत्तराधिकारी था। उसके साथ देवल का विवाह होने से दोनों काफ़िर माँ-बेटी का महत्व बढ़ जाने का खतरा था। मलिका-ए-जहां ने इस चर्चा को विराम देते हुए कहा- “मेरे भाई अलपखान की बेटी के साथ ख़िज्रखान का विवाह हो।” अन्ततः सुल्तान को इस सम्बन्ध पर कोई आपत्ति न हुई, क्योंकि अलपखान एक सुयोग्य सेनापति और उसके साम्राज्य का सुदृढ़ स्तम्भ था।
ऐसा प्रतीत होता है कि ‘ईर्ष्या मध्ययुगीन स्त्रियों का प्रिय गहना था, जिसे वे हर समय अपने दिल से लगाए रखती थी।’ वे बढ़िया वस्त्र, सुन्दर आभूषण और शाही सुस्वादु भोजन के बाद की सारी जिन्दगी इन्हीं घात-प्रतिघात और षड्यंत्रों में बिता देती थी। उनकी तुलना में समाज के अन्य वर्गों की महिलाएँ कहीं अधिक उदार, दयालु, सभ्य और सहृदय थी। मल्लिका-ए-जहां ने देवल और ख़िज्रखान के बढ़ते हुए प्रेम को खत्म करने के लिए उन दोनों के मिलने-जुलने पर रोक लगा दी। फिर देवल को ‘लाल महल’ भिजवा दिया, जिससे कि ख़िज्रखान उसे कभी देख ना सके।
स्थान परिवर्तन का यह समाचार ख़िज्रखान के लिए वज्र के समान था। दोनों प्रेमी आँसू बहाते रहे और अपने प्रेम को मृत्युपर्यन्त स्थाई बनाए रखने की सौगन्ध खाते रहे। इस दौरान स्मृति स्वरूप शहजादे ने देवल को अपने सुन्दर बालों की एक लट दी, जबकि राजकुमारी ने उसे प्रणय स्मृति के रूप में अपनी अंगूठी पहना दी। वास्तव में उन दोनों का प्रेम चन्दन की तरह था, जो टुकड़े-टुकड़े हो जाने पर भी अपना सुगन्ध नहीं खोता है।
शहजादा के हृदय से विरह की व्यथा को दूर और मन को स्थिर करने के लिए मलिका-ए-जहां ने अपने भाई अलपखान की बेटी से ख़िज्रखान के विवाह की तैयारियाँ शुरू करा दी। शाही महल के चारों ओर ऊँचे-ऊँचे कुब्बे बनाए गए। उन्हें बहुमूल्य रेशमी पर्दों से सजाया गया। गलियों और बाजारों की सजावट की गई। दीवारों पर अनेक तरह के सुन्दर चित्र बनाए गए। जहॉं-तहॉं खेमें और शामियाने गड़ाए गए। जगह-जगह सुन्दर फर्श बिछाए गए। कहीं खाली जगह दिखाई नहीं देती थी। ढोल-ताशे बजने लगे। नट और बाजीगर अपने तमाशे दिखाने लगे। कुछ तलवार चलाने वाले नट ऐसे थे जो बाल को बीच से चीरकर दो फाँकों में बाँट देते थे। कुछ नट तलवार को पानी की तरह निगल जाते थे।
कुछ तो अपनी नाक में चाकू चढ़ा लेते थे। तुर्की, ईरानी और हिन्दुस्तानी संगीत की बहार थी। दिल्ली में दूर-दूर से कलावन्त इकट्ठे होते जा रहे थे। मदिरा पानी की तरह बह रही थी। इसप्रकार महीनों तक राग-रंग का उत्सव चलता रहा। विवाह की तैयारियाँ होती रही। ज्योतिषियों ने शुभ मुहूर्त निकाला। उसी अनुसार छह फरवरी तेरह सौ बारह को विवाह सम्पन्न हुआ।
चारों ओर खुशियों की बहार थी, लेकिन शहजादा ख़िज्रखान के सुन्दर मुख पर उदासी की घटा छाई थी। बलि होते हुए बकरे की तरह उसका मन छटपटा रहा था। वह अपनी प्रेमिका देवल की याद में अत्यधिक व्याकुल था। अलपखान की सुन्दर कन्या के सौन्दर्य से भी उसकी विरह-ज्वाला किसी प्रकार कम न हो पाई। इस विवाह की धूमधाम को लाल महल से राजकुमारी देवल ने भी देखा था। उसके दिल पर क्या बीती होगी, ये तो वही जाने। बावजूद उसने शहजादे के पास इस शादी की मुबारकवाद भेजी।
देवलरानी से मुबारकवाद का सन्देश पाकर शहजादे का दिल टुकड़े-टुकड़े हो गया। वह पागल सा रहने लगा, मानो उसका सब कुछ लुट गया हो। वह एक विशाल साम्राज्य का शक्तिशाली सम्राट का पुत्र होते हुए भी देवलरानी की एक झलक पाने के लिए व्याकुल रहने लगा। वेदना इतनी बढ़ गई कि उसका स्वास्थ्य दिन-ब-दिन गिरने लगा। उसकी स्थिति अत्यन्त चिन्ताजनक हो गई। ‘सच में मुहब्बत की कहानी लिखना, यानी पानी से पानी में पानी लिखना है।’ अन्त में उसने एक विश्वस्त और चतुर दासी के हाथों मलिका-ए-जहां के पास यह करुणाजनक सन्देश भेजा :
“माँ, अपनी भतीजी के लिए पुत्र की हत्या करना उचित नहीं है। इस्लाम पुरुष को चार विवाह करने की आज्ञा देता है, और बादशाहों को तो राजनीतिवश बहुत से विवाह करने पड़ जाते हैं। मेरे महल में यदि एक देवल आ जाती है तो इससे आपकी भतीजी का तो कुछ भी अहित नहीं होगा, बल्कि मेरी बुझती हुई जिन्दगी को एक नई रौशनी मिल जाएगी। यदि मैं इसी तरह घुट-घुट कर मर गया तो आपको इस खून का जवाब खुदा के सामने देना होगा। – आपका बेटा, ख़िज्रखान।”
शहजादे की इस दर्द भरी पुकार और गिरती हुई सेहत से मलिका-ए-जहां का पत्थर दिल भी पिघल गया। उसने शहजादे को देवलरानी से विवाह की अनुमति इस शर्त पर दे दी कि यह विवाह अत्यन्त गुप्त रीति से होगा। इसमें जरा भी धूमधाम नहीं की जाएगी। विवाह में वर-वधू के माता-पिता के अतिरिक्त केवल एक काजी और एक पण्डित को ही आने की अनुमति होगी। शहजादे ने ये सब शर्तें मान ली। देवल रानी का कन्यादान उसकी माँ कमला देवी ने किया। सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी और मलिका-ए-जहां वर पक्ष की ओर से उपस्थित थे। वर की ओर काजी और वधु की ओर से एक पण्डित ने हिन्दू और मुस्लिम विधि-विधान से इस विवाह को सम्पन्न कराया।
अपनी बिछड़ी हुई प्रियतमा देवलरानी को पाकर शहजादे को मानो दुनिया भर की सल्तनत मिल गई। अब उसका मन हर प्रकार से सन्तुष्ट और प्रसन्न था। उसके मन में किसी प्रकार की कामना न थी। बावजूद शीघ्र ही शहजादे के सुख को काली घटा ने घेर लिया। यह काली घटा और कोई नहीं, मलिक कफूर नामक वह गुलाम हिजड़ा था, जिसे सुल्तान ने गुलाम से अमीर और फिर मलिक बना दिया। फिर एक विशाल सेना उसके अधीन कर दी। उसे दक्षिण भारत पर विजय पाने और लूटमार करने के लिए सुल्तान ने भेज दिया। सुल्तान के प्रेम पात्र इस हिजड़े ने सारे दक्षिण भारत को रौंद डाला। इन विजयों से उनकी प्रतिष्ठा को चार चाँद लग गए। धीरे-धीरे सारे साम्राज्य में इस हिजड़े के नाम का डंका बजने लगा। सुल्तान ने उसे मलिक नायब की उपाधि से भी विभूषित किया।
धीरे-धीरे मलिक कफूर स्वयं दिल्ली का सुल्तान बनने का सपना देखने लगा। यह सपने ख़िज्रखान के होते हुए कैसे पूरे हो सकते थे? अतः वह मलिक कफूर की आँख में कंकर की तरह चुभने लगा। यही वजह थी कि मलिक कफूर ने सुल्तान के कान भरने शुरू कर दिए। फिर उसने सुल्तान को विश्वास में लेकर स्वामी भक्त अमीर अलपखान की दिनदहाड़े हत्या कर दी। इतनी बड़ी घटना को लेकर किसी ने मुँह तक नहीं खोला। अब शहजादे ख़िज्रखान की बारी थी। इसी बीच सुल्तान बीमार पड़ गया। ज्यों-ज्यों सुल्तान की बीमारी बढ़ती गई, त्यों-त्यों मलिक कफूर के आतंक में भी वृद्धि होती गई और षड़यंत्रों में तेजी आने लगी। अन्ततः मलिक कफूर ने मरणासन्न सुल्तान की गर्दन पर अपनी तलवार की नोक बढ़ाकर एक फरमान उनकी ओर बढ़ा दिया, जिसमें शहजादा ख़िज्रखान तथा दूसरे शहजादों को भी ग्वालियर के किले में बन्दी बनाने का हुक्म था।
सुल्तान ने अपने काँपते हाथों से उस फरमान पर हस्ताक्षर कर दिए। इसतरह वे अपने ही हाथों से अपने परिवार और साम्राज्य की बर्बादी पर मुहर लगा दी। वास्तव में वक्त ने उससे वृद्ध सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी की हत्या बदला ब्याज सहित वसूल लिया। उसी शाम को मलिक कफूर ने ख़िज्रखान और शादीखान– इन दोनों शहजादों को कैद कर अपने विश्वस्त सेना नायकों की देखरेख में ग्वालियर दुर्ग भिजवा दिया। उस दौर में यह दुर्ग शहजादों का बन्दीगृह और वधशाला का काम आता था। देवल रानी भी दिल्ली के ऎश्वर्यपूर्ण राजमहलों को छोड़कर अपने पति ख़िज्रखान के साथ स्वेच्छा से कैद हो गई और इस दुर्भाग्य की घड़ी में अपने अभागे पति की सेवा करने ग्वालियर दुर्ग में पहुँच गई। फिर उन दोनों को इस भयंकर किले की अन्धेरी कोठरी में मौत की घड़ियाँ गिनने के लिए मिली।
जब कभी युवराज ख़िज्रखान कैदखानों के कष्टों से व्याकुल हो जाता था तो देवल रानी उसे महापुरुषों के संकट पूर्ण जीवन की कथाएँ सुनाकर धैर्य बंधाती। फिर देवलरानी को अपने पास देखकर शहजादा कैदखाने की यातनाओं को भी भूल जाता था। अन्ततः 4 जनवरी 1316 को सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु हो गई। जनचर्चा थी कि मलिक कफूर ने ही षड़यंत्रपूर्वक सुल्तान को विष देकर मार डाला है।
सुल्तान की लाश को दफनाया भी नहीं गया था कि मलिक कफूर ने अपने विश्वस्त साथी सुबुल को यह आदेश दिया- “ग्वालियर दुर्ग जाकर शहजादा ख़िज्रखान की आँखें निकाल लिया जाए।” जब युवराज ख़िज्रखान को इस बात का पता चला तो उसने जालिमों द्वारा आँखें निकालने के पहले बड़ी लालसा के साथ अपनी प्रियतमा देवलरानी को आँसू भरी आँखों से देखा, मानो वह उसे पी जाना चाहता हो। तब युवराज ने भरे कण्ठ से कहा- “प्यारी देवल, तुम सचमुच वफा की देवी हो। मुझे अपनी आँखें जाने का अफसोस नहीं है। बस अफसोस यही कि मैं तुम्हारी वफा का कोई बदला न चुका पाया। तुम्हें हिन्दुस्तान की मलिका न बना सका। मैं बड़ा बदनसीब हूँ , मुझे माफ कर देना।”
देवल रानी अत्यन्त विलाप करते हुए दुष्ट सुबुल के पैरों में अपना सिर रख दिया और कहा- “ईश्वर के लिए शहजादे की सुन्दर आँखों को बख्श दो। बदले में मेरी आँखें निकाल लो।” लेकिन वे देवलरानी को ठोकर मारकर एक ओर लुढ़का दिया, और काँपते हुए युवराज को अपने कठोर और दृढ़ हाथों से जमीन पर पटक दिया। फिर पाँच जल्लादों ने शहजादे के हाथ, पैर और सिर दबोच लिए। दुष्ट सुबुल चमकते उस्तरे को लेकर युवराज की छाती पर बैठ गया। उस वीभत्स दृश्य को देखकर देवल रानी खम्भे का सहारा लिए हुए बुरी तरह चीख रही थी। जालिमों ने बल एवं क्रूरता पूर्वक राजकुमार की आँखों को खरबूजे की फाँकों की तरह काट कर बाहर निकाल लिए। शहजादे दर्द से तड़पते हुए बुरी तरह चीख रहा था। फिर वह बेहोश हो गया। आसपास की धरती खून से लाल हो गई।
बावजूद अभी एक बड़ी परीक्षा अपनों को ही देनी बाकी थी। दुष्ट मलिक कफूर ने सुल्तान के पाँच वर्षीय पुत्र को नाममात्र के लिए राजगद्दी पर बिठाकर जुल्म की इंतहा कर दी। तीन शहजादों की आँखें निकलवाने के बाद उसने चुन-चुन कर सुल्तान के पारिवारिक मित्रों, रिश्तेदारों और शुभचिन्तकों का वध करवा दिया। मलिका-ए-जहां की सारी दौलत लूटकर उसे दर-दर की भिखारिन बना दिया। बावजूद अभी एक बड़ी परीक्षा बाकी थी।
इसमें कोई दो मत नहीं कि प्रकृति न्याय करती है। एक रात जब मलिक कफूर सो रहा था तो सुल्तान के सेवकों ने उस पर हमला करके उसे मार डाला। इसप्रकार वह सुल्तान के पाँच वर्षीय पुत्र की आड़ में 35 दिन ही आतंकपूर्ण शासन कर पाया था कि उसे अपनी करनी का फल मिल गया।
मलिक कपूर की मौत के बाद अमीरों ने सुल्तान के 18 वर्षीय पुत्र मुबारक खान को ग्वालियर दुर्ग से बुलवाकर दिल्ली की गद्दी पर बिठा दिया। पता नहीं उसकी आँखें और जिन्दगी किस तरह मलिक कफूर के जुल्मों से बच गई थी। लेकिन मुबारक शाह किस मिट्टी का बना था, वो तो खुदा जाने। उसने मलिक कफूर के हाथों खिलजी वंश की बर्बादी को भूलकर अपने पिता के पदचिन्हों पर चलकर खुसरो खान नामक एक सुन्दर हिजड़े पर मुग्ध हो गया और उसे राज्य का सर्वेसर्वा बना दिया। अब मुबारकशाह का ध्यान देवल रानी के असीम सौन्दर्य पर गया। उसने अपने बड़े भाई ख़िज्रखान के पास कड़े शब्दों में फरमान भेजा- “सुल्तान ने तुम्हें देवल रानी सौंपी थी। अब सुल्तान की हैसियत से हमारा आदेश है कि देवलरानी को हमारे पास भेज दो।”
इस शाही हुक्म से अन्धा शहजादा ख़िज्रखान मर्माहत हो गया। उसका रोम-रोम काँप उठा, क्योंकि देवल तो उसकी जिन्दगी थी। उससे बिछड़ने की तो वह कल्पना भी नहीं कर सकता था। उसने बड़े साहस से काम लेकर सुल्तान के हुक्म को मानने से इंकार कर दिया और विनम्र शब्दों में यह सन्देश भेजा- “जिसतरह आत्मा के निकल जाने पर शरीर मिट्टी के समान व्यर्थ हो जाता है, उसीतरह देवलरानी के बिना मैं भी निष्प्राण हो जाऊंगा। आपको हिन्दुस्तान का साम्राज्य प्राप्त हो चुका है, वह आपके पास रहे। मुझे उसकी जरा भी कामना नहीं है, लेकिन देवलरानी को मेरे पास ही रहने दीजिए। देवल को मैंने सदैव अपनी सम्पत्ति माना है। वह मेरी सम्पत्ति ही नहीं, बल्कि मेरी जिन्दगी भी है। यदि आपने मुझ अंधे से इस लाठी का सहारा छीना तो मैं मर जाऊंगा। मेरे प्राण किसी भी तरह नहीं बचेंगे। मेरी हत्या करने के बाद ही आप इस ‘वफा की देवी’ को मुझसे छीन सकते हैं।”
ख़िज्रखान के जवाब से सुल्तान कुतुबुद्दीन मुबारक शाह भड़क उठा। उसने अपनी सिपहसालार शादीकत्ता को आदेश दिया- “ग्वालियर दुर्ग में बन्दी ख़िज्रखान, शादीखान और सिहाबुद्दीन- इन तीनों शहजादों के सिर काट कर लाए।”
शादीकर्ता ग्वालियर पहुँच गया। रुखी-सुखी रोटी और फटे-पुराने कपड़ों के सहारे किले के कैदखानों में अपनी बोझिल जिन्दगी के दिन पूरे कर रहे शहजादे शादीखान और सिहाबुद्दीन के सिर निर्ममतापूर्वक काट दिए। ततपश्चात जब वह ख़िज्रखान के पास पहुँचे तो देवल रानी चीखकर शहजादे की छाती से लिपट गई और अपनी फूलों जैसी सुकुमार बाहें उसके गले में डाल दी। वह बुरी तरह रो रही थी, करुण चीत्कार कर रही थी और हत्यारों से उसके प्राणों की भीख मांग रही थी। परन्तु देवल की दशा पर दुष्टों को कोई दया न आई। हत्यारों ने अन्धे शहजादे पर तलवार से वार कर दिया।
देवल रानी ने शहजादे के सिर को अपनी सुकुमार देह से ढँक रखा था, इसलिए चोट उसके सिर पर आई। तलवार के करारे वार से उसका सिर बीच से फट गया। रक्त का फव्वारा फूट पड़ा। उसने शहजादे को फिर भी नहीं छोड़ा। देवल की सुकुमार बाहें अपने पति के गले से कस गई। शहजादे की गर्दन पर वार से राजकुमारी देवलरानी का सुन्दर हाथ कट गया और वह मूर्छित होकर धरती पर गिर पड़ी। अगले वार से शहजादे का सिर कटकर धरती पर आ गिरा। खून का गरम स्रोत फूट पड़ा, जिसने युवराज की अपनी देह के साथ-साथ उसके पैरों में निस्पंदन पड़ी राजकुमारी देवलरानी का भी अभिषेक कर दिया।
अगले ही क्षण शहजादे का कटा हुआ शरीर भी अपनी प्रियतमा के बगल में गिर पड़ा। दोनों एक-दूसरे को अपने गरम रक्त से नहलाकर सच्चे प्रेम और बलिदान का परिचय दे रहे थे। दिल्ली के वैभवशाली तख्त पर वे भले ही ना बैठ सके, पर इस धरती पर उनके कटे हुए शरीर लेकिन जुड़ी हुई आत्माएँ मिलकर एक हो गई थीं।