(मनोज जायसवाल)
लडकी जब ‘बाबुल’ के घर होती है‚ तब उसका स्थान बेटे से भी बढकर होता है। सुदुर जगहों में समाज के अंतिम पंक्ति में भी देखें तो वह ‘परिवार’ की धुरी होती है‚ जहां वह सर्वस्व जिम्मेदारियां निभा रही होती है। ‘परिवार’ में उनकी एक दिन की अनुपस्थिती भी परिजनों को साल रही होती है।’
‘परिवार’ में उनकी एक दिन की अनुपस्थिति भी परिजनों को साल रही होती है। एक पिता का कर्तव्य उनकी प्राथमिक शिक्षा से उनके ब्याह के बाद तक बना होता है।‘बेटी’ को पता है वह एक दिन इस परिवार से अनजाने परिवार में भी धुरी बनने वाली है‚ जहां दोनों परिवार को उनसे अपेक्षाएं हैं।
‘वैवाहिक’ आयोजन ‘विवाह’ जीवन का सबसे खुशी का क्षण होता है‚ लेकिन परिवार से विलग होने का दुःख भी। विवाह पर ऐसा सबसे कठिन क्षण होता है ‘विदाई’ का। आज से 20–25 वर्ष पूर्व तक विवाह सम्पन्न होने के बाद ‘विदाई’ का अलग से आयोजन होता था। पर अब ‘पाणिग्रहण’ उपरांत एक साथ बेटी को विदाई दिया जाता है। यहां गौर करने वाली बात है कि आज के समय में ‘सगाई’ जैसे आयोजन भी वैवाहिक आयोजनों के साथ एक ही दिन पूर्व किया जाने लगा है।
समय की बचत के साथ सम्पुर्ण ‘परिवार’ की उपस्थिति में नेंग परंपरा के बीच रस्में निभाने का आनंद ही अलग है। ‘विदाई’ नाम ही दुखों का है‚जिस अवसर पर लडकी के माता पिता परिजन अपितु स्वयं लडकी के जीवन साथी की आंखे गीली कर जाती है।घर छोडने पर एक गंभीर सन्नाटा बाबुल के घर पसर जाता है। वहीं घर आंगन में हमेशा चहकने वाली हंसी जो परिवार की नजरों से कभी ओझल न हुई हो और सारे भरे पूरे परिवारजनों के बीच न हो अधुरापन लगना स्वाभाविक बातें हैं।
अपने दिल पर पत्थर रखकर अपनी लाडली बिटिया को ‘कन्यादान’ करने वाला पिता और मां ही जान सकते हैं। यही नहीं यह तो पारंपरिक विवाह की बात हो गई पर आज के दौर में ‘लव मैरिज’ करने वाले बेटी एवं बेटे भी याद किया करते हैं। हो क्यों नाǃ आखिर कार विविध रस्मोपरंपरा के बीच ढेर सारे संस्कारों‚मेंहदी रस्म से लेकर ‘विदाई’ तक की रस्म कभी न कभी किसी के वैवाहिक आयोजन को देखकर भी याद आना स्वाभाविक है।