क्या विधवा होना अभिशाप है? श्री कोमल सिन्हा शिक्षक साहित्यकार‚ जेपरा चारामा जिला कांकेर(छ.ग.)
साहित्यकार परिचय
श्री कोमल सिन्हा
पिता- स्व.श्री सत्यनारायण सिन्हा
माता-स्व.श्रीमती सीता देवी सिन्हा
जीवन संगिनी– श्रीमती गंगा सिन्हा
संतति- कुमकुम, अदिति
जन्म तिथि-12/03/1969
शिक्षा-एम.काम.एम.ए. अर्थशास्त्र एम.ए.हिंदी साहित्य बी.एड.
कार्य-शिक्षक
पुरस्कार/सम्मान–
संप्रति-शिक्षक
सम्पर्क-9131209475//9644112511
क्या विधवा होना अभिशाप है?
हां वो विधवा है! हा, उनके भी अपने सपने हैं।हां, वो नौकरी करती है। हां, वो जिंदगी के रोजमर्रा में अपने पैरों पर खड़ी है। हां, फिर भी समाज की ओछी मानसिकता व गलत सोच रखने वाले लोग उसे क्यों गलत समझते हैं? मैं सोचते रहता हूं। मेरे मस्तिष्क पटल पर यह बातें मुझे झिंझोड कर रख दिया है।
मेरा प्रश्न है समाज के उन ठेकेदारों से? जिन्होंने भारतीय समाज में अतीत के हमारे उन समाजसेवकों को भी धता बता रहे हैं,जिन्होंने समाज सती प्रथा सहित कई कुरीतियों,कुप्रथाओं को जड से उखाड फेंका था। बावजूद आज के इस सभ्य समाज में आज भी विधवा होना क्या कोई अभिशाप है? या कलंक है ?जो उन्हें क्यों स्वच्छंद,स्वतंत्र जीवन निर्वहन पर संकीर्णता की तालीम सिखायाी जाती है।
समझ में नहीं आता कि कोई स्त्री विधवा होते ही समाज उस मॉं का दुःख बांटने जाता है, या बढाने! अमूमन तालाब कार्यक्रम में मासूम को तालाब की सीढ़ी में बिठा दी जाती है और वहीं उसे सफेद साड़ी भेंट करना कितना बडा दंश है,जिसे वो जिंदगी भर सहती रहेगी। उनके कलेजे के टुकडे उस मासूम को सफेद साड़ी में लपेट दी जाती है ताकि सफेद साड़ी में झट से दाग पड़े और तमाशा बिन समाज देखे।
जिस प्रकार आज समाज की व्यवस्थाएं संचालित है, उस समाज के बीच शुभ कार्यों में उन्हें कोई अधिकार नहीं ! देखना तो दूर की बात वस्तुओं को छूने तक नहीं देते! धोखे से कहीं परछाई पड गया और यदि छू गया तो अपशकुन करार दिया जाता है।
वाह क्या यही हमारा सभ्य समाज है? विवाह में अपने खुद के बेटे का तिलक गुलाल मौर नहीं सौंप सकती? यह वही समाज है, जो मॉं नौ माह कोख प्रसव पीड़ा से लेकर बचपन से आज तक अपने बच्चों का लालन-पालन की, वही कोख वही मॉं अब अभिशापित क्यों?
बात बात पर समाज-समाज की रट लगाये उन तथाकथित सेवकों से सवाल है कि क्या विधवा होना नियति है। यदि नहीं तो इस सभ्य कहे जाने वाले समाज में यह दोयम नियमावली क्यों बनाया गया है? जिस प्रकार का दोयम दर्जा देने की सोच हमारा संविधान नहीं देता।
कहते हैं परिवर्तन संसार का नियम है तो नियमानुसार परिवर्तन निश्चित रूप से विधवा जीवन जी रही स्त्री के प्रति सकारात्मक सोच रखकर नियमावली में सम्मान का दर्जा देने परिवर्तन करें। समाज की सहानुभूति होने के बजाय उन्हें सुनने सुनाने के उनकी बची जिंदगी नहीं है। ना ही अपने पति की मृत्यु का वो जवाबदार नहीं है।सच तो यह है कि विधवा होना कोई अभिशाप नहीं है?
आज के सभ्य समाज के अंदर भी देखा जाता है कि वह घर से निकलती है तो कोई व्यक्ति उसे दिख जाए तो अपशकुन मानते आपस में बोलते है कि आज का पुरा दिन खराब हो गया। कोई बताएगा उसका दिन विधवा को देखने से कैसे खराब हुआ?’
उसकी तो कोई सुनने वाला भी नहीं ?अगर किसी पराए मर्द से बात करती है तो मोहल्ले पड़ोस की अन्य महिलाएं डंका पीट देंगी। यह सच्चाई है अरे एक स्त्री होकर किसी स्त्री की इज्जत तो कर सकती है! खुद स्त्री होकर किसी दूसरी स्त्री का दर्द समझ नहीं आ रहा तो किसी विधवा स्त्री के साथ मात्र दो दिन बीता कर देखो। पुरूष का स्थान भी समझ में आ जाएगा।
ऑफिस आते जाते किसी ऑफिस के लड़के से एक दो बार लिफ्ट भी ले ली तो सुनामी आ जाएगी ऑफिस का स्टाफ ही बड़ी-बड़ी बातें बनाएगा। अरे यारों सोंच बदलो वह भी एक स्त्री है! उने भी सीने में दिल और अरमान जीवन जीने की लालसा रखती है। स्वयं के मेहनत के बदौलत कमा खा रही है।
वह कौन सा वह जिस्म बेच रही है? उनके तो वह सपने टूट गए! अरमान टूट गए!ख्वाब टूट गए! लेकिन उनके अपने जीवन जीने की लालसा,जज्बा को मत तोड़ो जो उन्होंने पति की मृत्यु के बाद बची जिंदगी मर मर कर जी रही है। उसे भी औरों के समान खुलकर जीने दो। अब उसकी जीवन में पति के नहीं होने से बचा क्या है। पति के जाने के बाद खुशियां तो बची नहीं पर आप गम तो उनके घाव को बार-बार मत कुरेदो।