(मनोज जायसवाल)
दर्द,संवेदना,अनुराग दिल वाले ही लिखते हैं, ना अपने दर्द अपितु दूसरों के दर्द पर। वरना धन,भोग,भौतिक विलासिता को ही जिन्होंने लक्ष्य बनाया है,उन्हें लिखने से क्या पाठन से भी कोई मतलब नहीं है। उन लोगों के पास एक ही प्रश्न या बात कि इससे क्या मिलना है? इसका जवाब कोई इतनी सरलता से कैसे दे।
इन्हें कौन ये बताए कि हर इंसान को अपनी अभिव्यक्ति के तौर पर अपने लिए ही सही बिल्कुल लिखना चाहिए। सिर्फ लिखना ही क्यों? गुनगुनाना भी चाहिए। अनमोल इस मानव जीवन के क्षणों को अपनी रूटीन जीवनचर्या के नाम सोने,उठने बैठने,खाने तक ही क्यों लगाएं। अपने में कभी तो जरूर सोचना चाहिए कि हमारे इस जन्म का क्या जब हम उसी रोजमर्रा में आजीविका के नाम कुछ नाम ना कर सके! अपने के दर्द को दर्द समझने वाले अपने लिए ही दुखी होते हैं,दूसरों के दर्द पर संवेदित होने वाले असल में संवेदित इंसान है।
स्वार्थपन की इंतहा इतनी है कि अपने ही मित्र को कुछ लोग विकल्प के रूप में प्रयोग करते हैं। अपना स्वार्थ पूरा हुआ कि अपने विकल्प से दूर हो जाते हैं। जो आपसी रिश्ते को विकल्प के रूप में उपयोग करते हैं, उनके बातचीतों क्रियाकलाप से ही पता चल जाता है। कुछ ऐसे लोग खुद को ज्ञानी समझते हैं,लेकिन उनका ज्ञान उनके अपने बेहतर समझ रहे होते हैं। आपके स्नेह का सम्मान यदि आपके किसी साथ न होता दिखे तो ऐसे मतलबपरस्त लोगों से अपना संबंध तोड देना उचित है,सीधे तौर पर कहें कि जो आपको विकल्प समझ रखा हो‚उनसे दूर जाना बेहतर निर्णय होगा।