(मनोज जायसवाल)
सामाजिक सत्ता की लड़ाई में सत्ता से भी ज्यादा ताकतवर यदि कोई होता है तो वो है विपक्ष! सामाजिक सत्ता की दीवार उस दिन से कमजोर पड़ना शुरू हो जाता है,जिस दिन से शीर्ष नेतृत्व अपनी मनमानी प्रारंभ कर देता है। यह उसी तरह है,जैसे किसी घर के खपरैल या छत से बारिश पैदा हुए रिसाव। यदि आपने उस रिसाव को रोक लिया तो घर की दीवार दुरूस्त होंगी, नहीं तो आने वाले समय में गिरने की पूर्ण आशंका।
नहीं होगा सियासी फायदा
किसी भी समाज के चुनाव उपरांत सबसे पहले पहल यह चर्चा मो होती है कि इस सियासी दल या राजनीतिक विधार धारा का व्यक्ति सामाजिक सत्ता पर विराजमान हुआ है,जिससे उस सियासी पार्टी को फायदा होगा। लेकिन यह विचार मिथ्या साबित हुआ है। कारण कि समाज का कोई भी समाजजन अपने समाज में परिवर्तन या अपनी वर्तमान तकलीफों के चलते मतदान करता है। वह राजनीतिक चुनाव में जो जिस राजनीतिक विचारधारा का है, वह उसे ही मतदान करेगा।
यह बोलना बहुत सरल है कि इससे अमुक सियासी दल को फायदा होगा ! कई समाचार के भी आंचलिक समाचार पत्र की सुर्खियों में स्थानीय पत्रकार यह लिख दें लेकिन यह कोई पत्थर की लकीर नहीं है। यह अपनी स्वतंत्र अभिव्यक्ति और अपना मतैक्य होता है। लोगों का नहीं। समाज पर इस विचार को थोपा भी नहीं जा सकता। खुद समाज के अंदर संगठन को एक बार निहार लें कि पदाधिकारियों में अलग-अलग राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित लोग होते हैं, जो समाज के चुनाव में भले ही जिसे चुनें पर राजनीतिक चुनाव में उन्हें ही मतदान करेंगे जिस विचारधारा से वे जुड़े हैं।
सत्ता पक्ष में मेहनत
सत्ता पक्ष में हैं तो मेहनत खूब करनी पड़ेगी। क्योंकि विपक्ष मजबूत है तो सत्ता पक्ष की एक सुराख काफी है,सत्ता के सिंहासन हिलाने के लिये। उनकी नजर तो तकनीकी पक्ष की ओर है जहां से वे सवाल खड़ी करें।
इतना नहीं आसां
ये आग का दरिया है और इसमें डूब कर जाना है। वो तो चुनाव के दरम्यां से ही आरोप लगना प्रारंभ हो जाता है। चुनाव के बाद काा तो स्वमेव विचार किया जा सकता है। जिन लोगों के असीम स्नेह और आर्शीवाद मिला। ऐसा क्या हो जाता है कि मतदान करने वाले वही हाथ आपके विरूद्ध भी हो जाते हैं। तब वो वक्त याद आता है जब आप हमेशा गदगद हुआ करते थे।
”मैं” का घमंड, ”हम” का हृवास
अपने को सर्व शक्तिमान प्रभावशाली मानने,दूसरों को कमतर समझने का भाव और सबसे मुख्य बात इसी घमंड में सराबोर” मैं ”की भावना की प्रबलता और ”हम” की भावना का हृवास एक न एक दिन आपको गर्त में गिराने काफी है। खासकर सामाजिक सत्ता की बात है तब ”मैं” को त्यागना ही पडेगा और आगे तक चलना है तो ”हम” को अपनाना पडेगा। हम के लिए भौतिक मुलाकात ही नहीं मोबाईल से काल तकाजा है। मैं की परिभाषा के लिए जहां औपाचारिकताएं निभायी जानी है उसके लिए मैसेंजर जिंदाबाद है। निर्णय आपको करना है कि आप मैं का प्रयोग करोगेे या हम का।
‘प्रहार’ करने चुकेंगी नहीं।
आज की आधुनिकता में सोशल पटल,पोर्टल प्लेटफार्म पर उकेरी कलम यदि किसी सामाजिक सत्ता के लिए सकारात्मक रूख के साथ आपके साथ है तो कभी नकारात्मक पक्ष की प्रधानता पर हावी हो जाय उस वक्त सशक्त कलम की ताकत स्वयं अनुभव किया जा सकता है। अतएव उन ज्वलंत विषयों को खोद कर परोसी जा रहे आलेख को नजरअंदाज ना करें। आंचलिक समाचार पत्रों, कई यु-ट्युब चैनल कुछ पोर्टल में रूटीन खबरों में आयोजन की खबर से जितने गदगद हैं, सशक्त कलम की जागरूकता से लोग स्वयं आपके विरूद्व भी खड़े हो सकते हैं।
मुखर होकर लिखने वाली कलम उन आयोजन की रूटीन खबरों की खुशी छीन सकता है। क्योंकि ये कलम समाज की अमानताओं,विषमताओं,कमियों पर प्रहार करने से चुकेंगे नहीं। इन्हें आपके रूटीन खुश करने वाली खबरों से लेना देना नहीं है,ना किसी को खुश करने का मकसद। इन्हें तो धरातलीय सच परोसने का जज्बा है।